________________ नवमः सर्गः। द्वितीयार्थेऽव्ययम् / 'चिराय चिररात्राय चिरस्याद्याश्चिरार्थका' इत्यव्ययेऽवमरः। अवदधन्ति अवहितानि सन्ति / "वा नपुंसकस्य" इति शतुर्नुमागमः / इन्द्रनेत्राणि (कर्म) अशनिवज्रो न निर्ममौ किम् ? नूनं, वज्रमयानीत्यर्थः। अन्यथा कथमीदग्विलम्बनसहत्वमिति भावः। सत्वरकायें क्षिप्रकर्तव्ये मन्थरं मन्दं मां धिगस्तु ममेयं निन्दा प्राप्तेत्यर्थः। कुतो यत्र मयि परेषां प्रेष्यः कर्मकरः तस्य यो गुणः क्षिप्रकारिवलक्षणः सोऽपि न स्थितः / त्वदीयप्रत्युत्तरविलम्बनान्ममेयमदक्षता प्राप्तेत्यहो कष्टं परप्रेष्यभाव इति भावः // 21 // ___ इतने विलम्ब तक मेरे मार्गमें सावधान अर्थात् मेरे मार्गको देखती हुई इन्द्रकी आंखों को वज्रने नहीं बनाया क्या ? ( वज्र ने ही इन्द्रकी आंखोंको इतना दृढ़ बना दिया है कि वे इतना विलम्ब करने पर भी मेरे मार्गको देखते रहनेमें समर्थ हो सकी हैं / अन्यथा बे इतना विलम्ब सहन करने में कभी भी समर्थ नहीं होती)। शीघ्र किये जानेवाले कार्यमें शिथिल मुझको धिक्कार है, जिसमें दूसरेके दूत (अथवा--श्रेष्ठ दूत ) का गुण भी नहीं हैं / [ भेजे गये दूतको शीघ्र वापस जाकर भेजनेवालेसे उसके कार्यकी सिद्धि या असिद्धि होनेका समाचार कहना चाहिये, किन्तु तुम्हारे उत्तर देनेसे विलम्ब करनेके कारण ही मुझमें यह दोष आ रहा है, अतएव तुम शीघ्र दिक्पालोंके सन्देशका उत्तर देकर मुझे वापस करो] // 21 // इदं निगद्य क्षितिभर्तरि स्थिते तयाऽभ्यधायि स्वगतं विदग्धया / अधिस्त्रि तं दूतयतां भुवः स्मरं मनो दधत्या नयनैपुणव्यये // 22 // इदमिति / क्षितिभर्तरि भूपे इदं निगद्य स्थिते तूष्णीं भूते सति स्त्रीष्वधिस्त्रि विभक्त्यर्थेऽव्ययीभावे नपुंसकहस्वः / भुवः स्मरं भूलोकमन्मथं तं पुरुषं दूतयतां दूतकृत्ये निषिद्धमत्यतिसुन्दरमेनं दूतं कुर्वतामित्यर्थः। यथा भरतः-'नोज्ज्वलं रूपवन्तं च नार्थवन्तं न चातुरम् / दूतं वापि हि दूती वा बुधः कुर्यात्कदाचन // ' इति / नयनैपुणव्यये नीतिचातुर्यशून्यत्वे मनो दधत्या निदधत्या एते नीतिशून्या इति जानन्त्येवेत्यर्थः / अत एव विदग्धया कुशलया दमयन्त्या स्वगतमप्रकाशं यथा तथा आत्मन्येवाभ्यधायि अभिहितं, 'सर्वश्राव्यं प्रकाशं स्यादश्राव्यं स्वगतं मतम्' इति दशरूपके लक्षणात् / अहो बुद्धिमान्द्यमेषां यदेनं कामं दूत्ये नियुक्तवन्त इति भावः॥ 22 // ___ इस प्रकार ( श्लो० 17-21) कहकर राजा (नल ) के ( मौन धारणकर) स्थित होनेपर पृथ्वीके कामदेव उसको स्त्री ( मुझ दमयन्ती ) में दूत करते हुए अर्थात् दूत बनाकर भेजते हुए ( इन्द्रादि ) की नीतिकी निपुणताकी समाप्तिमें मन ( अपने मन ) को धारण करती हुई अर्थात् भूलोकमें कामदेवरूप उस पुरुषको मुझ स्त्रीके विषयमें दूत बनाकर भेजनेसे इन्द्रादि नीति-शानसे शून्य हैं ऐसा अपने मन में समझती हुई, ( अत एव ) चतुर