________________ 504 नैषधमहाकाव्यम् / रसझया जिलयात्रा समाराधयति भजत / देवताराधने मौनं युक्तमिति भावः / मया मपया अन्यया रसज्ञया जिह्वया कामाभिज्ञया च भवन्तमाह स्म / अनन्तरवाच्य लज्जया स्वयं वक्तुमशक्ता मन्मुखेन वक्तीत्यर्थः // 64) इस ( दमयन्तीके इतना ( इलो० 62-63 ) कहने के ) के बाद दमयन्तीसे प्रेरित सखी बोली- (पक्षा०-दृढ मौनरूप व्रतको धारण करने वाली ( अर्थात् बिलकुल मौन एक रसशा (जीभ, पाठा०-अपनी जीभ ) से लज्जाको आराधना (मौन रहकर लज्जाको धारण ) करती है, तथा दूसरी रसशा (अपने रस अर्थात् अभिप्रायको जाननेवाली, पाठा०अपनी रसशा ) मुझसे अर्थात् मेरे द्वारा आपके प्रति कहलाती है / [ मेरी सखी दमयन्ती स्वयं कहने में लज्जित होकर अपने अभिप्रायको मेरे द्वारा आपके प्रति कइला रही है। दृढ व्रतमें आसक्त व्यक्तिको कार्यान्तरासक्त होनेले आराध्यदेवकी आरथिनामें त्रुटि होनेका भय होनेसे उसका उस कार्यान्तरमें अपने भावको जाननेवाले दूसरे व्यक्तिको नियुक्त करना उचित ही है ] // 64 // 'तमचितुं संवरणमा नृपं स्वयंवरः सम्भविता परेचवि / ममासुभिर्गन्तुमनाः पुरःसरैस्तदन्तरायः पुनरेष वासरः // 6 // स्वयमेव दमयन्ती भूत्वाह-तमित्यादि / मम संवरणस्नजा तं नृपं नलमर्चितु. मर्चयितुमर्चतेभीवादिकात्तुमुन् / परेचवि परेऽहनि "सपः परुत्" इत्यादिना निपातनात् साधुः / स्वयंवरः सम्भविता सम्भविष्यति / किंतु पुरः सरन्तीति पुररसराः पुरोगास्तैः "पुरोऽग्रतोऽग्रेषु सते"रिति टप्रत्ययः। ममासुभिः प्राणैः सह गन्तुं मनो यस्य स गन्तुमनाः प्रागानादाय गन्तुकाम इत्यर्थः / "तुं काममनसोरपि" इति मकारलोपः / एष वासरः पुनः वासरस्तु तस्य स्वयंवरस्यान्तरायो विश्नः / दिनमा• अविलम्बोऽपि दुःसह इति भावः / एतेन कालजमवलपगमौरसुक्यमुक्तम् // 65 // मेरी वरणमालासे उस राजा ( नल) की पूजा (वरणमाला पहनाकर उन्हें वरणद्वारा उनका आदर ) करने के लिये कल स्वयंवर होगा, आगे जाने वाले मेरे प्राणों के साथ जानेकी इच्छा करनेवाला ( मुझे पहले मारकर व्यतीत होनेवाला ) यह ( आजका ) दिन उस (स्वयंवर) का विध्नरूप है। [ जिस राजा नलके लिये मेरी इतनी उत्सुकता है कि ब्यतीत होता हुआ भो यह दिन मुमूर्षु व्यक्ति के प्राणों के समान नहीं व्यतीत हो रहा है अर्थात् एक दिनका बिलम्ब भी मुझे असह्य हो रहा है, तो उनको छोड़कर मैं इन्द्रादिको वरण करूंगी यह कैसे सम्भव है ? अर्थात् कदापि ऐसा होना सम्भव नहीं ] // 65 // तदद्य विश्रम्य यालुरोध मे दिनं निनीषामि भवद्विलाकिनी / नखै किलाख्यायि विलिख्य पक्षिणा तदैव रूपेण प्रमः स मत्प्रियः // 66 // 1. नारायगभट्टैरिमौ श्लोकौ (65-66) "श्लोकहयमेकान्वयम्" इत्युक्त्वा सहैव म्याल्याती।