________________ 506 नैषधमहाकाव्यम् / ममैव पाणौकरणेऽग्निसाक्षिकं प्रसङ्गसम्पादितमङ्ग ! सङ्गतम् / न हा सहाधीतिधृतः स्पृहा कथं तवार्यपुत्रीयमजयमर्जितुम // 68 / / / ममैवेति / किञ्च अङ्ग ! भो ! मम पाणौकरणे पाणिग्रहण एव “नित्यं हस्ते पाणावुपयमने" इति पाणी शब्दस्य गतित्त्वात् “कुगतिप्रादय" इति समासः। अग्निसाक्षिकं यथा तथा विवाहाग्निसन्निधावेवेत्यर्थः। प्रसंगात् स्वयंवरप्रसंगात् सम्पादितं संगतमुभयोरानुरूप्याद्युक्तम् / आर्ययोः श्वशुरयोः पुत्र आर्यपुत्रो भर्ता नलः तदीयमार्यपुत्रीयं, "वृद्धाच्छः" न जीर्यतीत्यजयं संगतं रामसुग्रीवयोरिव स्थिरसख्यमित्यर्थः / “अजय संगत"मिति यत्प्रत्ययान्तो निपातः / अर्जितं सम्पाद. यितुं सहाधीतिः सब्रह्मचारिता तां धारयतीति भृत् सारूप्यभृदित्यर्थः / ध्धातोः क्विप / तस्य तव स्पृहा कथं नास्ति / हेति विषादे / सर्वथा स्पृहणीया तत्संगतिरित्यर्थः॥ 68 // हे अङ्ग ! मेरे विवाहमें ही आग्न-साक्षिपूर्वक प्रसङ्ग ( इन्द्रादिके दूतकार्य-सम्बन्धी सुअवसर ) से प्राप्त यह ( नलके साथ आपकी ) मैत्री है ( इन्द्रादिके दूतकार्यके सुअवसरमें मेरे विवाहमें ही अनायास प्राप्त तथा विवाहकी अग्निके मामने होनेसे दृढतम मैत्री तुम्हारी नलके साथ हो जायगी समानकी मैत्री समानके साथ अनायास ही होनेसे यह अवसर तुम्हें नहीं खोना चाहिये ) / कुल-शील-रूप आदिसे समान तुम्हारा तथा श्रेष्ठ मातापितावाले नलकी कभी शिथिल नहीं होनेवाली मित्रताको प्राप्त करनेके लिये तुम्हें चाह क्यों नहीं होती ? हाय ! खेद है। ( अथवा-हे अङ्ग १................"प्रसङ्गसे प्राप्त दोनों के योग्य होनेसे योग्यतम, श्रेष्ठ माता-पिताके पुत्र ( नल) की दृढ़ मित्रता पानेकी चाहना तुम्हें क्यों नहीं होती ? हाय ! खेद है)। [संसारमें एक कार्यके प्रसङ्गमें अनायास ही यदि दूसरा कार्य भी सिद्ध होनेकी आशा होती है तो बुद्धिमान् व्यक्ति उस लाभका त्याग नहीं करते, अतएव तुम्हें इस इन्द्रादि दूतकार्य के प्रसङ्गसे अनायास प्राप्त मैत्रीका त्याग नहीं करना चाहिये। साथ ही जैसे तुम उत्तम कुलोत्पन्न एवं शील सम्पन्न हो, वैसे नल भी हैं अग्निके साक्षी होनेसे वह मैत्री अत्यन्त दृढतम होगी, ऐसे उत्तम लाभको तुम नहीं चाहते यह खेद एवं आश्चर्य है / और नलके साथ तुम अध्ययन किये हो अर्थात् कुल-शीलादिके समान होनेसे तुम दोनोंका सतीर्थ्य-भाव है तथा सतीर्थ्य के साथ मैत्री करना भला कौन नहीं चाहता ? तथा जिस प्रकार इन्द्रादिके साथ मेरा विवाह कराने के लिये तुम प्रयत्नशील हो, वैसे नल के साथ भी विवाह कराने के लिये तुम्हें प्रयत्न शील होना चाहिये, क्योंकि इन्द्रादि देव तो केवल 1-1 दिशाओं के पति हैं और नल राजा सब दिक्पालोंका अंश होनेसे इन्द्र आदिकी अपेक्षा श्रेष्ठ हैं, अतएव तुम एक रात रहकर नलले मित्रता अवश्य करो। 'अङ्ग पदके सम्बोधन करनेसे-'तुम मेरे अङ्गतुल्य अनि निकटके व्यक्ति हो अतः इतना अधिक तुमको मैं कह रही हूँ' यह ध्वनित होता है ] // 68 //