________________ नवमः सर्गः। 507 दिगीश्वरार्थं न कथञ्चन त्वया कदर्थनीयास्मि कृतोऽयमञ्जलिः | प्रसद्यतां नाद्य निगाद्यमीदशं दधे दशौ बापरयास्पदे भृशम् / / 66 / / दिगीश्वरेति / किञ्चाहं त्वया दिगीश्वरार्थ कथञ्चनापि कदर्थनीया निवन्धनीया नास्मि, अयमञ्जलिः कृतः प्रार्थये त्वामित्यर्थः / प्रसद्यतां प्रसन्नेन भूयतां, भावे लोट / अद्य ईदृशं दिगीशसन्देशरूपं न निगाद्यं न वाच्यम्, "ऋहलोर्यत्" "गदमदे"त्यादिनानुपसर्गादेव यतो विधानात् / किं बहुना-भृशं बाप्परयास्पदे अश्रुवेगाश्रयो दृशौ दधे धारयामि रोदिमीत्यर्थः / नैवं दुःखकर्तुमुचितमिति भावः // 69 // ___ तुम दिक्पालों के लिये मुझे किसी प्रकार मत कर्थित करो ( सताओ) मैं हाथ जोड़ती हूँ, प्रसन्न होवो, आज ऐसा मत कहो, क्योंकि ( ऐसा करनेसे मैं ) अधिक अश्रुयुक्त नेत्रबाली होती हूँ अर्थात रोने लगती हूँ। [ कल ही मेरे शुभ विवाहका स्वयंवर है, अतएव प्रसन्नता के अवसरपर मुझसे तुम दिक्पालों के अनुराग आदिका वर्गन कदापि न करो, क्योंकि वैसा करनेसे मैं पीड़ाके वेगको नहीं रोक सकनेके कारण रो पड़ती हूँ और विवाह-जसे शुभ कार्यमें रोना अमङ्गलसूचक है, अतः मैं हाथ जोड़ती हूँ, तुम मेरे ऊपर कृपा करो और इस सम्बन्ध में आगे कुछ मत कहो ] // 69 // वृणे दिगीशानिति का कथा तथा त्वयोति ने नलभामपीहया / सतीव्रतेऽग्नौ तृणयामि जीवितंस्मरस्तु किं वस्तु तदस्तु भस्म यः 70|| वृणे इति / किञ्च दिगीशान् वृणे इति का कथा, अत्यन्तासम्भावितमित्यर्थः / तथा हि-नलस्य मां कान्तिमपि त्वनिष्ठामिति शेषः / त्वयीति त्वयि परपुरुषे स्थिते इति हेतोः तथेहया तादृगनुरागेण नेते / इह त्वयि या नलभा तां नलभामिति केचित् योजयन्ति / नन्वेवं सुरावधीरणे बलविद्वरोध इत्याशङ्कयाह-सतीव्रते पातिव्रत्ये एवाग्नी जीवितं तृणयामि तृणाकरोमि, जीवितास्पृहाणां पतिव्रतानां न कुतश्चिद्भयमिति भावः। स्मरभयन्तु दुरापास्तमित्याह-स्मरस्तु तत्प्रसिद्धं किं वस्त्वस्तुकः पदार्थो भवेत् न कोऽपीत्यर्थः / कुतः यः स्मरो मस्म भस्मीभूतः व्रतैकजीविनां सोऽपि तुच्छः किं करिष्यतीत्यर्थः। चारित्रैकपरायणाः सत्यो न किञ्चिद्गयन्तीति भावः // 70 // ___ 'मैं दिक्पालोंको वरण करूँगी' इसकी क्या बात है ? ( दिक्पालोंको वरण करनेकी कोई बात ही नहीं है ), तुममें नलकी कान्तिको भी.( मैं ) वैसा ( अनुरागके साथ ) चेष्टा ( कटाक्षादि ) से नहीं देखती हूँ ( अथवा-यहां स्थित तममें नलकी कान्तिको भी मैं उस प्रकार ( नल-विषयक अनुरागके समान ) नहीं देखती हूँ। अथवा-यहां स्थित तुममें नलकी कान्तिको भी मैं वैसी ( जैसी हंसने नखसे नलका चित्र बनाकर दिखलाया था वैसी) कान्तिको भी नहीं देखता हूँ / इस प्रकार इन्द्रादि दिक्यालोंके वरण नहीं करने में उनके साथ विरोध होने का भी मुझे भय नहीं है, क्योंकि नलके नहीं मिलने पर ) सतीव्रत