________________ नैषधमहाकाव्यम्। यत्न ) को करोगी तो अतिथिको प्रिय मानने वालो तूं घरपर आये हुए धर्मराज ( यम ) को क्यों नहीं कृतार्थ करोगी ? [ नलके नहीं मिलनेपर उद्वन्धनादि मरण-साधनोंको उक्त कारणों ( 2 / 46-48 ) से दूषित समझ कर यदि तुम कीसि दूसरे उपायका अवलम्बन करेगी तब मरने पर यमके यहाँ सबका जाना निश्चित होनेसे वे चिराभिलषित तुम्हें पाकर कृतार्थ हो जायेंगे; अत एव किसी प्रकार भी नलको न पाकर मरने में इन्द्रादि दिक्पालोंमें से कोई एक तुम्हें पा लेगा यह सोच कर तुम्हें नलको वरण करनेका दुराग्रह छोड़कर . इन्द्रादिमें से किसी एकका वरण कर लेना ही श्रेयस्कर है ] // 49 // / निषेधवेषो विधिरेष तेऽथवा तवैव युक्ता खलु वाचि वक्रता / विजम्भितं यस्य किल धनेरिदं विदग्धनारीवदनं तदाकरः // 40 // निषेधेति / हे विदग्धे ! अथवा तव एष इन्द्रादिनिषेधो निषेधवेषो निषेधाकारो विधिरङ्गीकार एव / तथा हि-वाचि वचने वक्रता वक्रोक्तिचातुरी व्यङ्गयोक्तिचातुरीति यावत् / सा तवैव युक्ता खलु / कुतः, इदं वक्रवाक्यं वञ्चनाचातुर्य यस्य ध्वने. यंकवृत्तेर्विजृम्भितं विजृम्भणं, "नपुंसके भावे क्तः" / विदग्धनारीवदनं सूक्तिचतुर स्त्रीमुखं तदाकरस्तस्य ध्वनेरुत्पत्तिस्थानमित्यर्थान्तरन्यासः। ततः स्थूणानिखनन न्यायेन विधिमेव द्रढयितुमेतन्निषेधनाटकमिति निषेधेन विधिरेव व्यज्यत इति भावः॥५०॥ ___ अथवा निषेधरूप में यह तुम्हारी स्वीकृति ही है अर्थात् तुम इन्द्रादि को स्वीकार हो कर रही है ( क्योंकि ) तुम्हारे ही वचनमें व्यङ्गयोक्ति उचित है / जिस ध्वनि-(ध्वनि' नामक उत्तम काव्य ) का यह विजृम्भित (विलास ),है, चतुर स्त्रियोंका मुख उस (धनि ) का खजाना है अर्थात् चतुर स्त्रियोंके मुखसे ही उत्तमरूपसे व्यङ्गयके बाहुल्य की प्राप्ति देखी जाती है / [ तुम व्यङ्गयपूर्वक निषेध करती हुई भी इन्द्रादिको स्वीकार हा कर रहा हो ऐसा मैं मानता हूँ ] // 50 // भ्रमामि ते भैमि ! सरस्वतीरसप्रवाहचक्रेषु' निपत्य कत्यदः / अपामपाकृत्य मनाक कुरु स्फुट कृतार्थनायः करमः सुरात्तमः / / 51 // एवं सुरस्वीकारपक्षमेव सिद्धवत्कृत्य निर्वध्य पृच्छति-भ्रमामीति / हे भैमि! ते तव सरस्वती वाक नदीभेदश्च तस्या रसः शृङ्गारो जलञ्च तस्य प्रवाहस्तस्य चक्रेषु पुटभेदाख्यावर्तेषु वक्रोक्तिरूपेश्वित्यर्थः / वक्रेविति पाठेऽप्ययमेवार्थः / 'चक्राणि पुटभेदाः स्युरित्यत्र' 'वक्राणीति' पाठस्यापि स्वामिनाङ्गीकारात् / कति क्रियन्त्यमूनि चक्राणि यस्मिन् कर्मणि तद्यथा तथा निपत्य भ्रमामि मुह्याम्यावर्ते च / अत्र वाच्यप्रतीयमानयोरभेदाध्यवसायान्निपातनादिक्रियानिर्वाहः / अलं वक्रोक्त्येति तात्पर्य किन्तु कतमः सुरोत्तमः कृतार्थनीयो वरणीयः ? एतदेव त्रपां मनागपाकृत्य शिथिली. 1. "वक्रेषु' इति पाठान्तरम् /