________________ नवमः सर्गः। 469 त्वयैकपन्या तनुतापशकुया ततो निवत्यं न मनः कथम्चन | हिमोपमा तस्य परीक्षणक्षणे सतीषु वृत्तिः शतशो निरूपिता / / 55 / / न च दाहाजेतव्यमित्याह-स्वयेति / एकपत्न्या मुख्यपतिव्रतया, अत एव त्वया तनुतापशङ्कया देहदाहसम्भावनया वा ततोऽग्नेर्मनः कथशन कथविदपि न निवत्यं न निवर्तयितव्यं, वृतेय॑न्ता "दचो यदि" ति प्रत्ययः। कुतस्तस्याग्नेः परीक्षणक्षणे अग्निदेवेन पातिव्रत्यपरीक्षावसरे सतीषु विषये हिमेनोपमा साम्यं यस्यास्सा वृत्तिः / शतशः शतकृत्वो निरूपिता निर्धारिता, न तु घुणाक्षरवत् सदित्यर्थः / तस्मात् त्वया न भेतव्यं प्रत्युत स एव साध्वीं स्वां दग्धुं बिभेतीति भावः / बत्र पूर्ववाक्यस्यैकपत्रीपदार्थहेतुकत्वात्पदार्थहेतुकमेकं काम्यलिजम, तस्याप्युत्तरवाक्यार्थहेतुकत्वाद्वाक्यार्थहेतुकञ्चेत्यनयोः सकारः॥ 55 // मुख्य प्रतिव्रता तुमको ( अपने ) शरीरके सन्तापकी शक्कासे उस (अग्नि ) से मनको किसी प्रकार नहीं लौटाना चाहिये अर्थात् तुम्हें अग्निमें ही अनुरक्त करना चाहिये (क्योंकि ) परीक्षा ( सतीत्व आदिकी परीक्षा ) के समयमें उस (अग्नि ) का व्यवहार पतिव्रताओं ( के विषय ) में सैकड़ों बार ( अथवा-सैंकड़ों पतिव्रताओंमें ) हिम (बर्फ) के समान ( ठण्डा ) निश्चित हो चुका है / [ यह प्रसिद्ध एवं सबके अनुभवसे सिद्ध बात है कि अग्नि सन्तापकारक है, परन्तु जब-जब सतियोंकी परीक्षा हुई है तब तक उनके विषयमें अग्नि सन्तापकारक अर्थात् उष्ण न होकर शीतल हो गयी है, और तुम मी सतियों में प्रधान हो, अतः, तुम्हें अग्निसे पीडा होनेका भय नहीं करना चाहिये ] / / 55 // स धर्मराजः खलु धर्मशीलया त्वयास्ति चित्तातिथितामवापितः। ममापि साधु प्रतिभात्ययं क्रमश्चकास्ति योग्येन हि योग्यसङ्गमः // 56 / / स इति / अथवा स प्रसिद्धो धर्मराजो यमः धर्म शीलयतीति धर्मशीला धर्मचारिणी / "शीलिकामिभच्याचरिभ्यो नः" / तथा त्वया चित्तातिथितां चित्तगो. चरत्वमवापितोऽस्ति खलु ? कामितः किमित्यर्थः। खलुशब्दो जिज्ञासायाम् / 'निषेधवाक्यालङ्कारजिज्ञासानुनये खलु' इत्यमरः। तथा चेदरमिस्थाह-ममाप्ययं क्रमः क्रमणं प्रवृत्तिः साधु यथा तथा प्रतिभाति परिस्फुरति / तथा हि-योग्येन सह योग्यस्य समागमः सम्बन्धश्चकास्ति शोभते, उभयोर्धार्मिकस्यादिति भावः / अर्थान्तरन्यासोऽलङ्कारः / / 56 // __ धर्मशील तुमने धर्मराजको मनका अतिथि बनाया है अर्थात् तुम धर्मराजको मनसेचाहती हो ? / मुझे भी यह क्रम (प्रवृत्ति ) अच्छी जचती है; क्योंकि योग्यके साथ योग्यका ( ही ) सङ्गम शोभता है / [ 'धर्मशील तुम धर्मराजको चाहती हो' इस विषयमें मेरी भी सम्मति है, अत एव तुम धर्मराज ( यम) को अवश्य वरण करो] // 56 // 1. “साधुः" इति पाठान्तरम् /