________________ કાક नैषधमहाकाव्यम् / लोचनयोस्तीचणकण्टकैर्निशितबर्बुरादिद्रुमावयवविशेषस्तथा व्यथाकरैः सपत्नीभावैरित्यर्थः। कण्टकैः पुलकैः 'वेणी दुमाङ्गे रोमाशे पुद्रशत्रौ च कण्टकः' इति उभय. त्रापि वैजयन्ती। घनां सान्द्रामातनुतां करोतु, शस्याः सपरनी भवेत्यर्थः। अत्र पुलकेषु कण्टकत्वारोपापलङ्कारः // 53 // हे दमयन्ति ! उन ( इन्द्र ) के लिये प्रसन्न होवो, संसारके स्वामी ( वे इन्द्र ) तुम्हारे शरीरके सङ्ग ( आलिङ्गनादि स्पर्श ) से उत्पन्न ( तथा सौतमें प्रेम करनेसे इन्द्राणीके नेत्रों के लिये तीक्ष्ण काँटे ) रोमाञ्चोंसे शरीरको सर्वदा परिपूर्ण करें। [तुम्हारे आलिङ्गनादिसे जब इन्द्र के शरीरमें पूर्णतया रोमाञ्च होगा, तब सौतमें प्रेम करनेके कारण वह रोमाञ्च इन्द्राणीके नेत्रों के तीक्ष्ण काँटोंके समान मालूम पड़ेगा। अथ च-सौतके शरीरसे उत्पन्न सन्तानको पतिके क्रोडमें देखनेसे दूसरी सौतके नेत्रोंमें काँटे-जैसा चुभता है, उसे वह नहीं सहन करती, अतः तुम्हारे शरीरके सङ्गसे उत्पन्न कण्टक ( रोमाञ्च, पक्षा०-सन्तान ) को पति इन्द्रके शरीरमें देखनेसे इन्द्राणीको काँटे चुभने-जैसी वेदना होगी। तुम इन्द्रको वरण करो] // 53 // अबोधि तत्त्वं दहनेऽनुरज्यसे स्वयं खलु क्षत्रियगोत्र जन्मनः / विना तमोजस्विनमन्यतः कथं मनोरथस्ते वलते विलासिनि // 54 // अबोधीति / हे विलासिनि ! विलासशीले ! "वौ कषलसकत्थस्रम्भ" इति घिनुपप्रत्ययः। तत्त्वं त्वन्मनोरथस्वरूपमबोधि बुद्धम् / कर्मणि लुङ / तदेवाह-स्वयं त्वमित्यर्थः। दहने जातवेदसि अग्निदेवे अनुरज्यसे अनुरक्तासि खलु। रओवादि. कात् स्वरितेन कर्तरि लट् / “अनिदिताम्" इत्यादिना अनुनासिकलोपः। कुतः, क्षत्रियगोत्रे जन्म यस्यास्तस्यास्ते ओजस्विवंशजाया इत्यर्थः / मनोरथः ओजस्विनं तमग्निं विनाऽन्यतोऽन्यत्र सार्वविभक्तिकस्तसिः। कथं वलते प्रवर्तते न कथमपीस्यर्थः / एतेनोभयोरोजस्वित्वेन समागमानुरूण्याद्दहनानुरागित्वं ते युक्तमिति समर्थनाक्यार्थहेतुकं काव्यलिङ्गं व्यक्तमेव // 54 // स्वयं ( विना किसीकी प्रेरणा किये ही ) अग्निमें अनुरक्त हो रही हो तुम्हारे मनोरथका स्वरूप मैंने समझ लिया। क्षत्रिय वंशमें उत्पन्न हुई तुम्हारा मनोरथ ( अभि विना दूसरे ( तेजते हीन किसी व्यक्ति ) में प्रवृत्त होता है ? अर्थात् नहीं होता है / [ तुम क्षत्रिय वंशमें उत्पन्न होनेसे तेजस्विनी हो, और तेजस्विनीका तेजस्वी व्यक्ति में ही अनुराग होना उचित है, क्योंकि तेजस्वी व्यक्तिका मनके तुल्य रथ या चाहना अन्य किसी ब्राझगादि शान्त व्यक्ति के प्रति कभी नहीं जाता, अतः तम्हाराअग्निमें स्नेह करना ठीक है। 1. "असंशयं रज्यसि जातवेदसि" इति पाठान्तरम् /