________________ 467 नवमः सर्गः। कृत्य स्फुटं कुरु व्यकं ब्रहीत्यर्थः। नात्र लजितम्यम्, "आहारे व्यवहारे च त्यक्त लजः सुखी भवेदिति" न्यायादिति भावः // 5 // हे दमयन्ती ! तुम्हारी वाणीने रस माधुर्य ( पक्षा०-सरस्वती नदोका जल ) के प्रवाह ( वक्रोक्ति आदि पक्षा०-धारा ) के चक्रों ( समूहों, पक्षा०-भंवरों ) में गिरकर कब तक घूमूंगा भ्रममें पड़ा रहूंगा ( पक्षा०-चक्कर लगाता रहूँगा ) ? ( अतः ) लज्जाको थोड़ा कम कर स्पष्ट करो ( अथवा-लज्जाको कम कर थोड़ा स्पष्ट करो अर्थात् संकेत करो कि-) किस देव श्रेष्ठको ( वरण करनेसे ) कृतार्थ करोगी? [जिस प्रकार कोई व्यक्ति नदीके जल प्रवाहके भँवरमें पड़कर चक्कर काटता रहता है, उसी प्रकार मैं तुम्हारे रसयुक्त वाणीके वक्रोक्त्यादिके समूहमें पड़कर यह नहीं निर्णय कर सका हूँ कि तुम्हारा स्पष्ट आशय क्या है ? अर्थात् किस देवश्रेष्ठ ( दिक्पाल होनेसे या तुम्हारे वरण करनेसे देवश्रेष्ठता प्राप्त होना उचित ही है ) को घरण करोगी ? अतः थोड़ा सङ्कोच छोड़कर स्पष्ट कहो ] // 51 / / मतः किमैरावतकुम्भकैतव प्रगल्भपीनस्तनदिग्धवस्तव / सहस्रनेत्रान्न पृथक मते मम त्वदङ्गालक्ष्मीमवगाहितुं क्षमः / / 52 / / अथैकस्मिन्नेव नामग्राहमनुरागमष्टभिः पृच्छति-मत इत्यादि। हे भैमि ! ऐरावतकुम्भयोः कैतवेन मिषेणेत्यपह्नवभेदः / प्रगल्भौ कठोरो पीनौ च स्तनौ यस्यास्तस्याः दिशः प्राच्याः धवः पतिरिन्द्रस्तव मतः सम्मतः किम् ? किंशब्दः प्रश्ने / "मतिबुद्धि" त्यादिना वर्तमाने क्तः। 'क्तस्य च वर्तमाने' इति तद्योगात्तवेति षष्ठी। युक्तञ्चतदित्याह-मम मते मत्पक्षे त्वदङ्गस्य लक्ष्मी लावण्यसम्पदमवगाहितुं सम्बग्ग्रहीतुं सहस्रनेत्रात् सहस्राक्षात् पृथगन्योऽपि इत्यर्थः। “पृथग्विने" त्यादिना पक्ष पञ्चमी / क्षमो न। अत्रोत्तरवाक्यार्थेन पूर्ववाक्यार्थसमर्थनाद्वाक्यार्थहेतुकं काव्य. लिङ्गम् / 'हेतोर्वाक्यार्थहेतुत्वे काम्यलिङ्गमुदाहृतम्' इति लक्षणात् / तस्य पूर्वोक्ता. पह्नवेन संसृष्टिः // 52 // ऐरावतके कुम्भ ( मस्तकस्थ मांसपिण्ड ) के व्याजसे कठोरस्तनवाली दिशा (54 दिशा ) का पति अर्थात् इन्द्र तुम्हें अभीष्ट है क्या ?, मेरे मतमें इन्द्र के विना ( दूसरा कोई ) तुम्हारे शरीरकी शोभाको देखने में समर्थ नहीं है। [ तुम्हारे सम्पूर्ण शरीर में शोभा फैला हुई है, उसे एक साथ सम्यक् प्रकारसे देखनेके लिये अधिक ( सहस्र ) नेत्रों वाला इन्द्र ही समर्थ हो सकता है, दूसरा कोई दो नेत्रवाला नहीं; अत एव तुम इन्द्रको चाहती हो तो' मेरी भी इसमें सम्मति है ] / / 52 // प्रसीद तस्मिन् दमयन्ति ! सन्ततं त्वदङ्गसङ्गप्रभवैजगत्प्रभुः / पुलोमजालोचनतीक्ष्णकण्टकैस्तनुं घनामाननुतां स कण्टकैः / / 53 / / प्रसीदेति / हे दमयन्ति ! तस्मै इन्द्राय प्रसीद प्रसन्ना भव / क्रियाग्रहणाच्चतुर्थी। जगत्प्रभुः स इन्द्रः सन्ततं तनुं निजाङ्गं निजाङ्गसङ्गप्रभवैरत एव पुलोमजायाः शच्याः