________________ gx नवमः सर्गः। याचनासे भी दुर्लभ ( अपने ) शरीरको हे अङ्ग ! इस अग्नि के लिये, स्वयं समर्पण कर दोगी। [इस समयमें अग्नि तुम्हारे शरीरकी याचना कर रहे हैं, पर तुम नहीं दे रही हो, और बादमें नलके विवाह न करने पर अपने शरीरको मरने के लिए अग्निमें छोड़ना अर्थात् अग्निके लिये स्वयं समर्पण करना, अग्निपर तुम्हारी बड़ी कृपा होगी, क्योंकि नायकके द्वारा आलिङ्गनादिके लिए नायिकासे याचना करने पर न देना तथा वादमें स्वयं अपनेको समर्पण करना नायकके विशेष आनन्दका कारण माना जाता है। क्या करने पर क्या परिणाम होगा, तुम यह नहीं समझती, अत एव मैं तुम्हें इतना कह रहा हूं यह वात आत्मीयता सूचक 'अङ्ग' पदसे ध्वनित होती है ] / / 48 / / जितं जितं तत्खलु पाशपाणिना विना नलं वारि र्याद प्रवेक्ष्यसि / तदा त्वदाख्यान बहिरप्यसूनसौ पयःपतिर्वक्षसि वक्ष्यतेतराम् // 46 // जितमिति / हे मुग्धे ! नलं विना वारि प्रवेच्यसि यदि मरणार्थमिति शेषः / अथेदानीं पाशः पाणौ यस्य तेन पाशपाणिना वरुणेन प्रहरणार्थेभ्यः परे निष्ठासप्तम्यौ भवतः / जितं जितमभीचगं जितं खलु / भावे क्तः। "नित्यवीप्सयोरि"ति नित्यायें द्विर्भावः 'नित्यमाभीचण्ये' इति काशिका। तदा वारिप्रवेशकाले असौ पयःपतिर्वरुगोऽपि त्वदाख्यान त्वन्नामकान् / बहिरप्यसून् बहिर्वर्तिनः प्राणान् वक्षसि वक्ष्यते। तराम् / वहेः स्वरितेत्त्वात् लटि सकि तरप्यामुप्रत्ययः। सोऽपि त्वां जीवग्राहं ग्रहीष्यतीत्यर्थः। अत एव पूर्व एवालङ्कारः॥४८॥ ___ यदि तुम नलके विना (नलके नहीं मिलने पर मरने के लिए ) पानीमें प्रवेश करोगी तो वरुणने अवश्य ही जीत लिया ( क्योंकि ) उस समय ( पानीमें प्राणत्याग करने के लिए तुम्हारे प्रवेश करने पर ) पानीके स्वामी ये वरुण तुम्हारे नाम वाले अर्थात् दमयन्ती नामक तुम्हारे प्राणोंको बाहर भी हृदयमें वहन करेंगे। [ अब तक तो वरुण तुमको भीतर अन्तःकरणमें ही ग्रहण करते हैं, किन्तु जब तुम मरनेके लिये जलमें प्रवेश करोगी तब वे वरुण तुमको बाहर भी हृदयसे आलिङ्गन करेंगे, यह उनकी बड़ी भारी विजय होगी] !!48 / / करिष्यसे यद्यत एव दूषणादुपायमन्यं विदुषी स्वमृत्यवे / प्रियातिथिः स्वेन गतागृहान् कथं न धर्मराजंचरितार्थयिष्यसि ||5|| करियस इति / अथ विदुषी पण्डिता विदग्धा त्वं यदि तु अत एव दूषणादेतस्मादेवोद्वन्धनादिना स्वमृत्यवे स्वमरणाय अन्यमुपायमनशनादिकं करियले, तदा प्रियातिथिरतिथिप्रिया त्वं स्वेन स्वत एव गृहान् धर्मराजगेहं गता सती धर्मराजं वैवस्वतमतिथिसत्तममिति भावः। कथं न चरितार्थयिष्यसि न कृतार्थ करि. प्यसि / कर्तव्यमेवेदं कृतयुगधर्मत्वात् स्वयं गत्वार्थिमनोरथपूरणस्येति भावः // 49 // यदि इसी दोष ( उद्वन्धन, अग्नि-प्रवेश और जल प्रवेश करनेसे क्रमशः इन्द्र, अग्नि और वरुण मुझे प्राप्त कर लेंगे इस दोष ) से पण्डिता तुम किसी दूसरे उपाय ( मरनेका