________________ नैषधमहाकाव्यम् / को वरणकः उन्हें प्रतिवन्दी बनाकर उनको सेवा करो [चारो दिक्पालों से किसी एकको वरण करनेका प्रतिसन्देश देकर उनका सम्मान करो ] // 18 // सुरेषु सन्देशयसीहशी बहुं रसस्रवेण स्तिमितां न भारतीम् / मदपिता दर्षकतापितेषु या प्रयातु दावादितदाववृष्टिताम् / / 16 // सुरेष्विति / ईदृशी लोकोत्तरांबहु प्रभूतां रसस्रवेण रसप्रवाहेण स्तिमितां भरितां भारती सुरेषु न सन्देशयसि सन्देशं न करोषि / सन्देशशब्दात् तत्करोतीति ण्यन्तालटि सिप / या भारती दर्पण कन्दर्पण तापितेषु तेषु मयार्पिता सती दावादिता दावाग्निदग्धाऽरण्ये या वृष्टिः तत्तां प्रयातु सन्तापसंहरणात् तत्सदृशी भवेदिति निदर्शनालङ्कारः / 'दवदावी वनारण्यवह्रीं' इत्यमरः // 19 // / ___ माधुर्य रसके क्षरण से परिपूर्ण अथवा वक्रोक्त्यादिसे सरस ऐसी बहुत-सी वाणीको देवोंमें नहीं सन्देश देती हो ( तुम ऐसी वाणी का सन्देश देवों के लिए दो ), मेरे द्वारा अर्पण की गयी अर्थात् स्नायी गयी ( अथवा तुम्हारे द्वारा मुझमें अर्पणकी गयी अर्थात् इन्द्रादिके लिये प्रतिसन्देशरूपमें मुझसे कही गयी ) जो वाणी कामदेवसे सन्तप्त उन (देवों ) में दावाग्निसे पीडित वनमें वृष्टिके समान होती है। [जिस प्रकार दावाग्निसे जलते हुये वन के सन्ताप को वृष्टि शान्त करती है, उसी प्रकार मुझसे प्रतिसन्देशरूपमें कही गयी माधुर्यरसपूर्ण तुम्हारी वाणी कामानल-सन्तप्त देवोंके सन्ताप को दूर करेगी; अतएव तुम्हें देवोंके लिये सन्देश देना उचित है ] // 19 // यथा यथेह त्वं दपेक्षयाऽनया निमेषमप्येष जनो विलम्बते / रुषा शरव्यीकरणे दिवौकसां तथा तथाऽद्य त्वरते रतः पतिः // 20 // यथा यथेति / हे भैमि ! एष अयं जनः स्वयमित्यर्थः / यथा यथा यावत् यावदित्यर्थः / इह त्वत्समीपे त्वदपेक्षया त्वदनुरोधेन निमेषमपि विलम्बते, रतेः पतिः कामो रुषा दिवौकसां देवानां शरव्यीकरणे लक्ष्यीकरणे तथा तथाऽद्य त्वरते, अतः चिप्रमेव प्रतिवाचं देहीत्यर्थ // 20 // ___ यह जन अर्थात् मैं तुम्हारी उत्तर देनेके अनुरोध से (पाठा०-अपेक्षासे अर्थात् तुम्हारे उपेक्षासे, प्रतिसन्देश नहीं देनेसे ) जैसे-जैसे निमेषमात्र भी विलम्ब करता है, वैसे-वैसे रतिपति (कामदेव) देवोंको बाणों का निशाना बनाने में आज शीघ्रता करता है / [ अतएव तुम बहुत शीघ्र अर्थात् निमेषमात्र भी विलम्ब न कर उत्तर दो] // 20 / / इयच्चिरस्यावदधन्ति मत्पथे किमिन्द्रनेत्राण्यशनिन निर्ममौ / धिगस्तु मां सत्वरकार्यमन्थरं स्थितः परप्रेष्यगुणोऽपि यत्र न // 11 // इयदिति / मत्पथे मदागमनमार्गे इयच्चिरस्य इयच्चिरमित्यर्थः / अत्यन्तसंयोगे 1. “त्वदुपेक्षया-"इति पाठान्तरम् /