________________ नैषधमहाकाव्यम् ____ सुधांश्विति / भवान् सुधांशुवंशाभरणमिति श्रुतेऽपि विशेषविषये संशयस्तत्रापि क इति सन्देहो नापैति अतो विशेषो वक्तव्य इति भावः। अथावाच्यत्वामोच्यते तर्हि कियद्वाच्यं तदेव विविच्यतामित्याह-कियत्स्वर्थेषु मौनं कियत्सु विषयेषु वाग्वितता विस्तृता न किञ्चिदत्र नियामकमस्तीति भावः। किंतु तव वञ्चनचातुरी प्रतारणाचातुर्य महती। अहो! औचितीवचातुरी व्याख्येया॥१५॥ 'आप चन्द्रवंशके आभरण हैं। यह सुननेपर भी ( मेरा ) विशेष सन्देह ( ये नल हैं या दूसरा कोई है, इस प्रकारका नाम-विषयक सन्देह ) दूर नहीं होता है ( अतः आप अपना नाम बतलाकर मेरा सन्देह सर्वथा दूर कर दीजिये ), कुछ विषयों ( नाम आदि ) में मौन तथा कुछ विषयों ( कहांसे आये, कहां आये इत्यादि ) में अत्यन्त विस्तृत (हम इन्द्रादि दिक्पालोंके पाससे तुम्हारे ही यहां अतिथि आये हैं, उनके संदेश लाये हैं इत्यादि बहुत विस्तृत) आपकी बोलनेकी चतुराई है, यह आश्चर्य है। [ आप मेरे कुछ प्रश्नोंका उत्तर न देकर तथा कुछ प्रश्नोंका बढ़ाचढ़ाकर उत्तर देकर जो मुझे ठगनेकी चतुरता कर रहे हैं, इससे मुझे बड़ा आश्चर्य होता है ] // 15 // मयापि देयं प्रतिवाचिकं न ते स्वनाम मत्कणेसुधामकुर्वते / परेण पुसा हि ममापि सङ्कथा कुलाब लाचारसहासनासहा / / 16 // अथ यदुक्कं नामकथनं निषिद्धमिति तत्र प्रतिबन्दी गृहाति-मयापीति / स्वनाम मम कर्णसुधां कर्णामृतमकुर्वते अश्रावयते इत्यर्थः / ते तुभ्यं मयापि प्रतिवाचिकं प्रतिसन्देशनं न देयं, कुतः, हि यस्मान्ममापि परेण पुंसा सङ्कथा सम्भाषणं कुलाबलानां कुलाङ्गनानामाचारस्य सहासनं सहवासस्तस्य न सहत इत्यसहा अक्षमा। 'पचायच'। कुलस्त्रीसमाचारविरुद्धत्यर्थः॥ 16 // ___ अपने नामको मेरे कानोंमें अमृत नहीं बनाते हुए (अपना नाम मुझसे नहीं बतलाते हुए) आपके लिए मैं भी प्रत्युत्तर ( इन्द्रादि दिक्पालोंके संदेशका उत्तर ) नहीं देती हूं, क्योंकि परपुरुषके साथ विशेष गोष्ठी अर्थात् सम्भाषण कुलाङ्गनाके आचारके सहवासके विरुद्ध है। [जिस प्रकार नाम-ग्रहण आपके लिये सज्जनाचार-विरुद्ध ( श्लो०--१३) है, उसी प्रकार परपुरुषके साथ सम्भाषण करना भी मेरे लिए कुलीन स्त्रियोंके सदाचार के विरुद्ध है; अतएव जब तक आप अपना नाम नहीं बतलायेंगे, तब तक मैं भी आपके वचनोंका उत्तर नहीं दूंगी ] // 16 // हृदाभिनन्दा प्रतिवन्धनुत्तरः प्रियागिरः सस्मितमाह स स्म ताम् | वदामि वामाक्षि! परेषु मा क्षिप स्वमीशं माक्षिकमाक्षिपचः // 17 // __ हृदेति / स नलः प्रियाया गिरो वाक्यानि हृदा हृदयेन अभिनन्द्यानुमोद्य प्रतिवन्या पूर्वश्लोकोक्त्या अनुत्तरः तां प्रियां सस्मितमाह स्म उक्तवान् / 'लट् स्म'इति भूते लट् / हे वामाक्षि! चारुलोचने! वदामि। मक्षिकाभिः कृतं माक्षिकम् /