________________ 474 नैषधमहाकाव्यम् / तथापि निर्बध्नति ! तेऽथवा स्पृहामिहानुरुन्धे मितया न किं गिरा। हिमांशुवंशस्य करीरमेव मां निशम्य किं नासि फलेग्रहिग्रहा // 12 // ___ तथापीति / तथापि वैयर्थेऽपि निर्बध्नति ! निर्बन्धकारिणि ! बध्नातेः शत्रन्तादुगितश्चेति डीबन्तात् सम्बुद्धिः / इहार्थे ते तव स्पृहां वान्छां मितया गिरा नानुरुन्धे नानुवर्ते किम् ? अनुरोत्स्याम्येवेत्यर्थः / कुलस्वरूपमात्रं कथयामीत्यर्थः / रुधेर्लटि तक। मां हिमांशुवंशस्य करीरं सोमकुलाङ्कुरमेव निशम्य फलं गृह्णातीति फलेग्रहिः सफलः ग्रहः आग्रहो यस्याः सा सफलाभिनिवेशा नासि किम् ? तावता न तुष्यसि किमित्यर्थः / “फलेग्रहिरात्मम्भरिश्चे"ति निपातनात् साधुः // 12 // ___ अथवा तथापि ( कुल तथा नामके नहीं बतलानेका कारण कहनेपर भी ) हे आग्रहशीले ( आग्रह करनेवाली दमयन्ति ) ! परिमित वचनसे ( थोड़े शब्दोंमें उत्तर देनेसे ) इस विषय में तुम्हारी उत्कट इच्छाको (मैं) क्यों न रोक दूं ? ( अथवा-इच्छा का क्यों नहीं अनुरोध करूं अर्थात् अनुकूल बनकर उत्तर दे दूं ?) चन्द्रवंश ( चन्द्रकुल, पक्षा०-चन्द्ररूप बांस ) का करीर ( बालक, पक्षा०-अङ्कुर अर्थात् कोपल ) ही मुझको सुनकर तुम सफल आग्रह वाली नहीं हो क्या ? अर्थात् अवश्य ही सफल आग्रहवाली हो। [जिस प्रकार बांसमें बड़ेबड़े बांस उत्पन्न होते हैं, उनमें छोटे-से कोपलका कोई विशिष्ट स्थान नहीं रहता, उसी प्रकार चन्द्रवंशमें बहुतसे बड़े राजा हो चुके हैं, उनमें मैं एक बालक ( अप्रसिद्ध सामान्य व्यक्ति) हूँ, मेरा कोई विशिष्ट स्थान नहीं है / इस प्रकार कहते हुए नलने अपनेको प्रकाशित नहीं किया है, अपि तु अपनेको साधारण बतलाकर छिपाया है ] // 12 // महाजनाचारपरम्परेडशी स्वनाम नामाददते न साधवः। 'अतोऽभिधातुं न तदुत्सहे पुनर्जनः किलाचारमुच विगायति / / 13 // कुलमुक्तं नाम तु वाच्यमित्याह-महाजनेति। महाजनानां सतामाचारस्य परम्परा सम्प्रदायः ईदृशी / तामेवाह-साधवः सन्तः स्वनाम नाददते न गृह्णन्ति नाम / नामेति प्रसिद्धौ-"नामानुकीर्तनं पुंसामात्मनश्च गुरोः स्त्रियाः। दिनमेकं हरत्यायु"रिति निषेधादिति भावः / अतो निषेधात् तत् पुनस्तन्नाम तु अभिधातुं नोत्सहे न शक्नोमि / "शकष" इत्यादिना तुमुन्प्रत्ययः / तथा हि-जनो लोक आचारमुचमाचारत्यजं विगायति किल गर्हते खलु // 13 // ___महापुरुषोंके आचारकी ऐसी परम्परा है कि सज्जन लोग अपना नाम नहीं लेते, इस कारण मैं उसे ( नामको ) कहने के लिये उत्साह (इच्छा) नहीं करता हूं अर्थात् नहीं कहना चाहता हूँ; क्योंकि आचार छोड़नेवालेकी लोक निन्दा करता है / [अतएव मैं बड़ोंके आचार 1. “ततो-" इति पाठान्तरम् / 2. तदुक्तम्-"आत्मनाम गुरोर्नाम नामातिकपणस्य च / श्रेयस्कामो न गृहीयाज्ज्येष्ठापत्यकलत्रयोः // " इति /