________________ 472 नैषधमहाकाव्यम् / दमयन्ती को नलने पुनः बोलकर अनुगृहीत किया। नल दमयन्तीके वार-बार पूटनेपर पुनः बोले-] // 7 // अये ! ममोदासितमेव जिह्वया द्वयेऽपि तस्मिन्ननतिप्रयोजने। गरौ गिरः पंझवनार्थलाघवे मितञ्च सारश्च वचो हि वाग्मिता II अये इति / अये ! दमयन्ति ! न विद्यते अतिप्रयोजनमधिकप्रयोजनं यस्मिन् तस्मिन् द्वयेऽपि कुलनाम्नोर्युगलेऽपि मम जिह्वया उदासितं माध्यस्थ्येन स्थितं, 'नपुंसके भावे कः'। तथा हि-पल्लवनं विस्तरणं वृथाशब्दप्रलपनमिति यावत् / तचार्थलाघवञ्च वकन्यार्थसङ्कोचन गिरः वाचः गराविव विषप्रायावुभावित्यर्थः / मितमल्पातरं सारं महार्थशवचो वाक्यं वाग्मिता वक्तृत्वम्, अन्यथा वाचालता स्यादिति भावः / “वाचो ग्मिनिः" / सामान्येन विशेषसमर्थनरूपोऽर्थान्तरन्यासः॥ हे दमयन्ति ! विशेष प्रयोजनसे हीन उन दोनों ( कुल तथा नामके कहने ) में मेरी जिह्वाने उदासीनता धारणकी अर्थात् विशेष प्रयोजन नहीं होनेके कारणसे ही मैंने अपना कुल तथा नाम नहीं कहा, ( क्योंकि बातको) अत्यन्त बढ़ाना और अर्थका सङ्कोच करना ( थोड़ेमें कहने योग्य बातको बहुत बढ़ाकर कहना तथा बहुत अर्थवाली बातको थोड़े अर्थ में कहना)-ये दोनों ही बचनके विष (विषतुल्य ) हैं, ( अत एव विषतुल्य ऐसी बातको माध्यस्थ्य धारणकर छोड़नाही उचित है ); क्योंकि (शब्दमें ) परिमित तथा ( अर्थमें ) सारयुक्त वचन ( कहना ) ही पाण्डित्य है / [ पूछने परभी निःसार बातका उत्तर देना अनुचित मानकर ही मैंने मेरे वंश तथा नामके विषयमें तुम्हारे पूछने पर भी उत्तर नहीं दिया है ] // 8 // वृथा कथेयं मयि वर्णपद्धति कयानुपूर्या समकेति केति च . क्षमे समक्षव्यवहारमावयोः पदे विधातुं खलु युष्मदस्मदी / / 3 / / कुलनामकथनं वृथत्युक्तं, तब नामकथनस्य वैयर्थ्यमाह-वृथेति / का वर्णपद्धतिरक्षरपरितः / कयानुपूर्व्यानुक्रमेण मयि समकेति संज्ञात्वेन संकेतितेतीयं कथा प्रश्नोक्तिश्च वृथा। किमुतोत्तरमिति भावः। नामरूपापरिज्ञाने कथमावयोमिथः संवादस्तत्राह-आवयोस्तव मम चेत्यर्थः / त्यदायेकशेषे यत्परं तदिति वचनादस्मदः शेषता। अक्षणोः समीपे समक्ष सम्मुखेन। समीपार्थेऽव्ययीभावे शरत्प्रभृतित्वात् समासान्तः / व्यवहारं मिथःसंकथां विधातुं युष्मच्चास्मञ्च युष्मदस्मदी पदे त्वमहमित्येतौ शब्दावित्यर्थः / तमे समर्थे खलु // 9 // 'मुझमें कौन वर्णसमूह ( कौन-कौन-से अक्षर ) किस आनुपूर्वी ( क्रम ) से संकेतित है; यह चर्चा ( प्रश्न ) भी व्यर्थ है ( तो तत्सम्वन्धी उत्तर तो सर्वथा व्यर्थ है ही। क्योंकि ) हम दोनों के प्रत्यक्ष व्यवहार ( बातचीत ) करने के लिये युष्मद् और अस्मद् शब्दके पद 1. "गरः" इति पाठान्तरम् /