________________ 477 नवमः सगः। 'मधुभेदो मधु चौद्रं माक्षिकादि' इत्यमरः / तेन कृतमित्यर्थे संज्ञायामित्यण्प्रत्ययः / तदाक्षिपत् निराकुर्वत् तत्सदृशमिस्यर्थः / ईदृशं लोकोत्तरं स्वं वचः परेषु परपुरुषेषु मा क्षिप मा निधेहि सत्यं कुलस्त्रीणां परपुरुषसम्भाषणमनुचितमङ्गीकृतं च स्वयं तु न परपुरुष इति भावः // 17 // (परपुरुषके साथ सम्भाषण करना कुलाङ्गनाओं के आचारसे विरुद्ध होने के कारण मैं भी आपसे अपना नाम नहीं बतलानेतक उत्तर नहीं दूंगी, इस प्रकारके दमयन्तीके वचनरूप ) प्रतिवन्दीसे अनुत्तर ( उत्तर देने में असमर्थ ) ये नल प्रिया ( दमयन्ती ) के वचनोंको ( अथवा-प्रिय वचनोंको अर्थात् मेरा नाम जानने के लिए यह इतना आग्रह कर रही है तथा परपुरुषसे भाषण नहीं करना चाहती ऐसी प्रिय बातोंको ) सुनकर मुस्कान के साथ उस दमयन्तोसे बोले-रे वामाक्षि ! ( सुन्दर नेत्रवाली, या कटाक्ष करनेसे टेढ़े नेत्रबालो, दमयन्ति ! ) मैं कहता हूं अर्थात् अपना नाम बतलाता हूं / मधुको तिरस्कृत करता हुआ ऐसा ( अनिर्वचनीय ) अपना वचन दूसरों (परपुरुषों ) में मत कहो। [ अथवा-सस्मित अर्थात् हंसते-हंसते मधुको तिरस्कृत..............। अथवा-उक्तरूप वचन परपुरुषसे मत कहो, किन्तु इन्द्रादि दिक्पालोंसे ही कहो / अथवा--ऐसे आत्मीय मुझको परपुरुषोंमें मत फेंको अर्थात् मुझे परपुरुष मत समझो, किन्तु इन्द्रादिके दूत होनेसे आत्मीय ही समझो, अतएव इन्द्रादिके सन्देशका उत्तर मुझे देने में कुलाङ्गनाचारका भङ्ग मत समझो / अथवा-मधुका तिरस्कार करनेवाला अर्थात् अतिशय मधुर वचन दूसरोंसे मत कहो, किन्तु मुझले ही कहो / अथवा--मुझे परपुरुषमें मत फेंको अर्थात् परपुरुष मत समझो किन्तु नल ही समझो ] // 17 // करोषि नेमं फलिनं मम श्रमं दिशोऽनुगृह्णासि न कञ्चन प्रभुम् / त्वमित्यमोसि सुरानुपासितुं रसामृतस्नानपवित्रया गिरा // 18 // करोषीति / हे भैमि ! भीमजे! मम इमं श्रमं सुरकार्यप्रयासं फलिनं फलवन्तं 'फलवान् फलिनः फली' इत्यमरः "फलवर्हाभ्यामिनज्वक्तव्यः।" न करोपि कथं, कञ्चनैकमपि दिशः प्रभुं दिगीशं नानुगृहासि, त्वमित्थं रसो माधुर्यमेवामृतं तत्र स्नानेनावगाहेन पवित्रया पूतया गिरा सुरानुपासितुमर्हसि साताधिकारत्वाद्देवपू. जाया इति भावः॥१८॥ मेरे इस परिश्रम ( इन्द्रादि का दूत वनकर यहां तक आनेका प्रयास ) को सफल नहीं करोगी ? ( अपितु सफल करना चाहिये ), किसी एक दिक्पालको (स्वयंवर में वर ग करने का आश्वासन देकर ) अनुगृहीत नहीं करती हो ? अर्थात् करना चाहिये / तुम इस प्रकार से ( प्रतिवन्दी बनाकर ) माधुर्यरसरूपी अमृतसे स्नान करनेके कारण पवित्र वचनले देवोंकी ( इन्द्रादि चारों दिक्पालोंकी या इनमेंले किसी एक दिक्पालकी ) उपासना करनेके योग्य हो अर्थात् मुझको जैसे प्रतिवन्दी ( श्लो० 15) बना दिया है, वैसे देवताओं