________________ अष्टमः सर्गः। 467 पूर्ववदलङ्कारः। स च रसनातलपत्रस्व यो हारकस्तस्येति रूपकेण सङ्कीर्यते / पुष्पिताग्रा वृत्तम् // 107 // इस प्रकार ( श्लो० 57 से 106 तक) देवसमूहके वाचिक (मौखिक सन्देश ) रूप मालाको अपने जिह्वातलरूपी पत्रपर धारण (अङ्कित ) कर यहां उसे पहुँचानेवाले मेरी दूतता को सफल करो, स्वयं निश्चयकर उनसे किसी एकका वरण करो / [ मैंने उन इन्द्रादि देवोंके मौखिक सन्देशको जिह्वातलरूपी पत्रपर धारणकर तुम्हारे पास पहुंचा दिया है, अब तुम स्वयं ही बिचारकर उनमेंसे किसी एकको स्वीकार करो; क्योंकि मैंने इन्द्रादि चारों देवोंकी दूतता करना स्वीकार किया है, अतः उनमें से किसी एकको स्वीकार करने के लिये अपना निर्णय देना या विशेष रूपसे समर्थन करना मेरा अन्याय पूर्ण पक्षपात होगा, इससे तुम स्वयं ही निर्णयकर उन चारों से किसी एकको स्वीकार करो // 107 // आनन्दयेन्द्रमथ मन्मथमनमग्नि केलीमिरुधर तनूदार ! नूतनाभिः / आसादयोदितदयं शमने मनो वा नो वा यदीत्थमथ तद्वरुणं वृणीथाः / / आनन्दयेति / हे तनूदरि ! कृशोदरि! नूतनाभिरभिनवाभिः केलीभिः क्रीडाभिः मन्मथमग्नमिन्द्रमानन्दय, अथवा तादृशमेव अग्नि ताभिरुद्धर, अथवा शमने यमे उदितदयं जातानुकम्पं मनः आसादय निवेशय / इत्थं नो वा यदि अथ तत्तर्हि मन्मथमग्नं वरुणं वृणीथाः वृणीष्व / 108 // हे कृशोदरि ! इन्द्रको आनन्दित करो, अथवा मन्मथमम (मनको मथन करनेवाले कामदेवमें डूबे हुए ) अग्निका नयी-नयी केलियोंसे उद्धार करो ( ऊपर निकालो अर्थात रक्षा करो ), अथवा यममें दयायुक्त मनको लगावो और यदि ऐसा नहीं है अर्थात् इन्द्र, अग्नि और यमको नहीं चाहती हो तो वरुण को वरण करो। [इन इन्द्रादि चारों देवों में से किसी एकका वरणकर हमारी दूतताको सफल करो] // 108 // श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालङ्कारहीरः सुतं श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / तस्यागादयमष्टमः कविकुलादृष्टाध्वपान्थे महा काव्ये चाणि वैरसेनिचरिते सर्गो निसर्गोत्रलः // 10 // श्रीहर्षमित्यादि / कवीनां कुलेन समूहेन अदृष्टे अध्वनि यत्पान्थं नित्यपथिक तस्मिन चारुणि शोभने वैरसेनेनलस्य चरिते तस्य श्रीहर्षस्य महाकाव्ये निसर्गो. ज्ज्वलोऽयमष्टमः सर्गः अगात् सम्पूर्ण इति भावः॥ 109 // इति मल्लिनाथसूरविरचिते 'जीवातु' समाख्याने अष्टमः सर्ग समाप्तः // 8 // कविकुल समूहके..."किया, उसके रचित, तथा कवि-समूहसे पहले नहीं देखे गये मार्गमें नित्य गमन करनेवाले अर्थात् कवि-समूहोंके अदृष्टपूर्व रचनाओंसे पूर्ण सुन्दर नैषध चरित्र महाकाव्यमें यह अष्टम सगै समा हुआ। शेष व्याख्या चतुर्थ सर्गवत् जानें।