________________ अष्टमः सर्गः। 459 अन्योऽपि अपमृत्युभीतो मानवो रसायनौषधसेवनापि त्राणमलभमानस्तस्मादुत्तमं रसायनं सेवित्वा प्राणरक्षणं कामयते / स्त्रीणामधरेऽमृतस्थितिः “केचिद्वदन्त्यमृतमस्ति पुरे सुराणां केचिद्वदन्ति वनिताऽधरपल्लवेषु।" इति कविजनोक्त्या प्रसिद्धव / नित्यं सेव्यमानस्य महागुणस्यापि भेषजादेर्गुणास्तत्सेविनः पुरुषस्य सात्म्यं प्रतिपद्य न तथा रोगप्रशमनार्थ शक्ता भवन्ति यथा नवीनभेषजमित्यतोऽपि नित्यसेव्यमान. स्वलॊकस्थामृतापेक्षया दमयन्त्यधरस्थामृतभेषजयाचनं देवानां नासङ्गतमित्यवधेयम् // हे दमयन्ति ! इस मदन ( कामदेव ) रूप अपमृत्यु ( अकालमृत्यु या दुर्गतिपूर्वक मृत्यु ) से बचाने के लिये हमलोगोंका अमृतरूपी रसायन औषध नहीं समर्थ है ( अतः) प्रसन्न होवों, अमृतरूपी रस (रसायन औषध, पक्षा०-षड्स भोजन ) से भी अधिक ( अपमृत्युनाशक होनेसे अथवा माधुर्यातिशययुक्त होनेसे श्रेष्ठ ) अपना अधर ( हमलोगोंको पान करनेके लिये ) दो। [ 'प्रसीद' पदके कहनेसे अपमृत्युसे भयभीत देवोंकी अतिदीनता सूचित होती है / जिस प्रकार लोकमें भी जब कोई व्यक्ति रसायन औषधोंके सेवन करनेसे स्वास्थ्यलाभ नहीं करता तो उन रसायनोंको त्यागकर उनसे अधिक गुणकारी रसायनको किसी दूसरेसे आर्त होकर माँगता है, उसी प्रकार दमयन्तीके बिरहसे कामपीड़ित देवोंका अमृतसेवनसे अपनी पीड़ा शान्त होती हुई न देखकर दमयन्तीसे कामपीड़ा-शामक अधरामृतकी याचना करना उचित ही है / तथा यह भी देखा जाता है कि जिस औषधका नित्य सेवन किया जाता है वह उन रोगों के लिये सात्म्य हो जाता है ( उसका रोगपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, जैसे किसी विषेले पदार्थको नित्य खानेवाला ब्यक्ति उससे नहीं मरता और दूसरा (नहीं खानेवाला) तत्काल मर जाता हैं ), अतः अमृत देवताओंका नित्य भोज्य पदार्थ होने के कारण सात्म्य होनेसे उनकी कामपीड़ारूपी रोगके दूर करनेमें सर्वथा अनुपयुक्त है। इस कारण भी उक्त देवोंका दमयन्तीके अधरस्थ अमृतरूपी दूसरी दवाका पानकर कामपीड़ारूपी अपना रोग शान्त करनेकी इच्छा करना उचित ही है। स्त्रियों के अधर तथा स्वर्ग में अमृतकी स्थिति कविसमयके अनुसार निर्णीत है ] // 94 // अस्माकमध्यासितमेतदन्तस्तावद्भवत्या हृदयं चिराय / बहिस्त्वयालकियतामिदानीमुरो मुरं विद्विषतः श्रियेव / / 35 // अस्माकमिति / भवत्या पूज्यया। भवतेर्डवतुप्रत्ययः / “उगितश्व" इति ङीप / स्वयाऽस्माकमेतदन्तर्वति हृदयं स्वान्तं चिराय चिरात्प्रभृति अध्यासितं तावदधिष्ठितमेव / अवधारणे तावच्छब्दः / निरन्तरचिन्तयेति भावः / किं त्विदानी बहिर्वा. ह्यमपि हृदयं वक्षः 'हृदयं वक्षसि स्वान्तम्' इति विश्वः / मुरं मुरस्य विद्विषतो विष्णोरुरो हृदयं 'द्विषोऽमित्रे' इति शतृप्रत्ययः / “द्विषः शतुर्वा' इति विकल्पात् "न लोके" इत्यादिना षष्ठीप्रतिषेधः / श्रियेवालक्रियताम् // 95 //