________________ 45. नैषधमहाकाम्बम् / मुरमित है, वे दोनों शीतल पदार्थ (कमल तथा चन्दन) भी यमके कामज सन्तापको शान्त करनेमें असमर्थ हो रहे हैं, यह आश्चर्य है ] // 77 // तं दह्यमानैरपि मन्मथैधं हस्तैरुपास्ते मलयः प्रवालैः। कृच्छेऽप्यसौ नोज्मति तस्य सेवां सदा यदाशामवलम्बते यः // 8 // तमिति / मलयो मलयादिः मन्मथैधं कामाग्नीन्धनम् / 'काष्ठं दाविन्धनन्वेध' इत्यमरः / तं यमं दह्यमानैस्तदङ्गसङ्गात्पञ्चबाणैरपि प्रवालैः पल्लवैरेव हस्तैरुपास्ते तस्य शीतोपचारमाचरतीति भावः। युक्तञ्चैतदित्याह-यो जनः सदा यस्याशां देशम् अनुरागञ्चावलम्बते / असौ जनः कृच्छ्रे आपद्यपि तस्य सेवां नोज्झति न स्यजति / यो यदुपजीवी तस्य तत्सेवा विपत्स्वपि कुतमुचितेत्यर्थः। अर्थान्तर• न्यासः // 78 // __ मलय पर्वत कामदेवके इन्धनरूप उस ( यम ) की ( यमशरीरके अधिक जलते रहनेसे) जलते हुए भी ( अपने ) हाथरूप पल्लवोंसे सेवा करता है, जो (मलय पर्वत ) जिस (यम) की आशा ( दक्षिण दिशा, पक्षा०-भरोसा) का सर्वदा अवलम्बन करता है, वह (मलय पर्वत ) कष्ट में ( अपने हाथरूप पल्लवोंके जलते रहनेपर अथवा कामाग्निसे यमके दुःखित होनेपर ) भी उस ( यम ) की सेवाको नहीं छोड़ता है ( यह उचित ही है)। [ लोकमें भी कोई व्यक्ति जिसका भरोसा रखता है या जिसके राज्यमें रहता है; उसके ऊपर कष्ट पड़नेपर स्वयं कष्ट सहता.हुआ भी उसकी सेवामें संलग्न रहता है / कामाग्निसे सन्तप्त यम अपने शरीर पर मलयाचलमें उत्पन्न पल्लवोंको शीतलता पानेके लिए रखते हैं, किन्तु वे सन्तप्त शरीरपर पड़नेसे जल जाते हैं / यम तुम्हारे लिए. अत्यन्त सन्तप्त हो रहे हैं ] // 78 // स्मरस्य कीत्येव सितीकृतानि तहोःप्रतापरिव तापितानि | अङ्गानि धत्ते स भवद्वियोगात् पाण्डुनि चण्डञ्चरजर्जराणि / / 76 / / स्मरस्येति / स यमो भवद्वियोगात्पाण्डनि चण्डेन तीव्रण उवरेण जजेराणि अत एव क्रमात् स्मरस्य कीा सितीकृतानि धवलीकृतानीव तस्य स्मरस्य दोःप्रतापैस्तापितानीव स्थितानीत्युभयत्राप्युत्प्रेक्षा / अङ्गानि धत्ते / अत्र यथास. खयोस्प्रेक्षयोः सङ्करः // 79 // वे यम तुम्हारे वियोगके कारणसे पाण्डुवर्ण तथा तीव्र ज्वरसे जर्जरित (अतएव क्रमशः) मानों कामदेवकी कीर्तिसे श्वेत किये गए तथा उस कामदेवके बाहु-प्रतापसे सन्तप्त शरीरों को धारण करते हैं / [ विरहियों के शरीरका पाण्डुवर्ण तथा जर्जरित होना प्रसिद्ध है, अत एव यमके भी शरीर के जर्जरित होनेमें कविने उत्प्रेक्षा की है कि यमके शरीर कामदेव की कीर्तिसे पाण्डु तथा बाहु-प्रतापसे जर्जरित हो गये हैं / श्वेत कीतिसे शरीरका श्वेत ('पाण्डु ) होना तथा प्रतापसे जर्जरित होना उचित ही है ] // 79 // . यस्तन्वि ! भर्ता घुमृणेन सायं दिशः समालम्भनकौतुकिन्याः। तदा सचेतः प्रजिघाय तुभ्यं यदा गतो नैति निवृत्य पान्थः / / 80 //