________________ नैषधमहाकाव्यम् / निःश्वसितमित्यर्थः / अत पवनामरप्रस्थानयोः कार्यकारणभावात्तदङ्गलपणातिशयोक्युस्थापितः सहोक्त्यलंकारः / “सहार्थेनान्वयो यत्र भवेदतिशयोजितः / कल्पितो. पम्यपर्यन्ता सा सहोक्तिरिहोच्यते // " इति लक्षणात् // 86 // इस ( स्वयम्बर-समाचार सुनने ) के बाद कामदेवके प्रतापाग्निरूप सन्तापसे पीड़ित दिक्पाल (इन्द्रादि), सपत्नीजन्य दुःखसे तीव्र ( तेज और उष्ण, पक्षा०-असम) अपनी ( अपनी ) सियोंके नासामागंगामी वायुओंके साथ चल दिये। [ तुम्हारे स्वयंवरके समा. चारते जब इन्द्रादि देव चलने लगे तब उनकी खिोंने हमारी सपत्नी ( सौत ) लाने के लिये ये हमारे पति जा रहे हैं, इस दुःखसे नालके रास्ते लम्बा-लम्बा निःश्वास छोड़ा। स्व-स्व-पत्नियोंके उष्ण तथा तीव्र निःश्वास वायुके साथ गमन करनेसे कविने उनके ( दमयन्ती लाभरूप ) कार्यको सिद्धि में अशकुन होना सूचित किया है / लोकमें भी आनेके समय में छींक होनेसे जनताको अनिष्ट होता है / ] / / 86 // अपास्तपाथेयसुधोपयोगैस्त्वच्चुम्बिनैवे स्वमनोरथेन / क्षुधश्च निर्यापयता तृषाच स्वादीयसाध्वा गमितः सुखं तैः / / 7 / / अथास्तेति / पथि साधु पाथेयम् / 'पाथेयं संवलं स्मृतम्' इति यादवः / “पथ्यतिथिवसतिस्वपतेर्ड" / तचासौ सुधा च तस्या उपयोगोऽपास्तो यैरिन्द्रादिभिः चुधं बुभुक्षां तर्ष तृष्णां पिपासां निर्वापयता शमयता स्वादीयसा अमृतादपि स्वादु. तरेण स्वच्चुम्बिना भवद्वोचरेण स्वयं मनोरथेनैवावा सुखं गमितो नीतः, अमृत. मप्युत्सृज्य स्वद्धयानमात्रसम्बन्धाः प्राप्ता इत्यर्थः // 87 // ___ पाथेय ( रास्तेका कलेवा) रूप अमृतका उपयोग ( पाठा०-उपभोग ) नहीं किये हुये उन (इन्द्रादि देवों ने ) भूख और प्यासको दूर करते हुए तथा ( अमृतसे भी) अधिक स्वादिष्ठ त्वद्विषयक मनोरथ ( तुम्हें पानेकी आशा, पक्षा०-मनरूपी रय ) से ही ( पाठा०मानो मनोरथसे अर्थात् दमयन्तीको प्राप्तकर इस-इस प्रकार रमण करेंगे, इत्यादि कल्पना से ) मार्गको सुखपूर्वक (पूरा) तय कर लिया है / [भूख-प्यासकी शान्ति के लिये पथिक मार्गका पाथेय लेकर चलता है, किन्तु इन्द्रादि देवोंने अमृतरूप उत्तम पाथेयका भी उपयोग नहीं किया ( उसे साथमें भी नहीं लाये); क्योंकि त्वद्विषयक मनोरथसे ही उन्हें भूख-प्यासने नहीं सताया, अतएव उनका मार्ग सुखपूर्वका पूरा हो गया। 'मनोरथ' शब्दके प्रयोगसे वे इन्द्रादि देव तुम्हारे लिये मनके समान अतितीव्रगामी रथसे आये अर्थात् अत्यन्त शीघ्र यहां पहुंचे। मनके समान रथका तीव्रवेग होनेसे मार्गमें उनका समय बहुत कम लगा, इस कारण मी वे इन्द्रादि मार्गमें भूख-प्याससे पीड़ित नहीं हुए तथा अमृत-जसे श्रेष्ठ पाथेयका भी उपयोग नहीं किया / अन्य भी पथिक तीव्र वेगसे चलनेवाली सवारीके द्वारा अपने अभीष्ट स्थानको सुखपूर्वक शीघ्र पहुँच जाता है तथा रास्तेमें बहुत समय नहीं 1. "सुधोपभोगैः” इति ततोऽग्रे "त्वच्चुम्बिनेव" इति च पाठान्तरम् /