________________ 437 अष्टमः सर्गः। मध्ये च्छिन्नं ध्रुवौ भैमीभ्रुवावेव स्मरचापं पूर्ववपकं तयोधैर्यमनोभवयोर्जयभा. वार्तामाह स्म स्मरचापभङ्गात् स एव भग्न इति भावः / कथशिक्कामं निरुध्य धैर्यमेवावलम्बितवानित्यर्थः // 53 // ___ उस नलके धैर्य तथा कामदेवने उस दमयन्तीरूप युद्धभूमिका अवलम्बनकर ( दमय. न्तीको ही अपना-अपना विषय बनाकर ) युद्ध किया जिस (युद्धभूमि ) में बीच में कटा हुआ ( दमयन्तीका ) भ्र दयरूप कामधनुषने उन ( नलके धैर्य तथा कामदेव ) के (क्रमशः) जय तथा पराजयको बतला दिया। [ दमयन्तीका भ्र द्वय मध्यच्छिन्न कामधनुष था, अतएव टूटे हुए धनुषवाले कामदेवकी पराजय तथा नलके धैर्यकी विजय हुई जिसका धनुष टूटता है, उसका पराजित होना उचित ही है, यहां कामका धनुष टूट गया / अतः वही नल धैर्य के द्वारा पराजित हुआ अर्थात् नलने दूर होनेके कारण अपने सहज धैर्यसे दमयन्ती. विषयक कामवासनाको रोक लिया। दमयन्तीके भ्रदय बीचमें मिले हुए नहीं होनेसे सामु. द्रिकशास्त्र के अनुसार शुम लक्षणसे युक्त हैं यह भी सूचित होता है ] // 53 // अथ स्मराज्ञामवधीर्य धैर्यादूचे स तद्वागुपवीणितोऽपि / विवेकधाराशतधौतमन्तः सतां न कामः कलुषीकरोति / / 54 / / अथेति / अथ स नलस्तस्या भैम्या वाचा उपवीणितो वीणया उपनीतोऽपि तद्वाग्वीणाकृष्टचित्तोऽपीत्यर्थः / "सत्यापपाश" इत्यादिना वीणाशब्दादुपगाने णिचि कर्मणि कः / धैर्याद्वैयं विधाय स्यब्लोपे पञ्चमी / स्मरस्याज्ञामवधीर्य अवज्ञाय उचे उवाच / तथा हि-विवेकानां धाराशतधौत क्षालितं सतां विदुषामन्तरन्तःकरणं कामो न कलुषीकरोति न विकत शक्नोतीत्यर्थः / अत्र पूर्वाधं स्मरधैर्ययोर्धावितचित्तस्य धैर्यनियमनास्परिसङ्घयालङ्कारः / “एकस्य वस्तुनो भावादनेकत्रैकदा यदा। एकत्र नियमः सा हि परिसङ्ख्या निगद्यते // " इति लक्षणात् / तस्योत्तरार्ध सामान्येन समर्थनात् सामान्येन विशेषसमर्थनरूपोऽर्थान्तरन्यास इति सङ्करः // 54 // इसके बाद उस दमयन्तीके वाणीरूप वीणासे प्रशंसित भी नल धैर्यका अवलम्वनकर कामाशा ( कामवासना ) को दबाकर बोले; विचारकी संकड़ों धाराओंसे धोये गये, सज्जनों के अन्तःकरणको काम मलिन नहीं करता है / [ पहले नलको दमयन्तीकी वाणीरूप वीणासे प्रशंसित होनेके कारण दमयन्ती-विषयक काम-वासना उत्पन्न हुई, किन्तु उन्होंने अपना दौत्य विचारकर सहज धैर्यसे उस कामवासनाको दबा दिया, क्योंकि सज्जनों का मन सैकड़ों विवेक धाराओंसे अत्यन्त स्वच्छ रहने के कारण कामवासनासे कलुषित कभी नहीं होता / लोकमें भी जिसे सैकडों धारायुक्त जलसे धोया जाता हैं, वह अत्यन्त स्वच्छ रहता है ] / / 54 // हरित्पतीनां सदसः प्रतीहि त्वदीयमेवातिथिमागतं माम् / वहन्तमन्तगुरुणादरेण प्राणानिव स्वःप्रभुवाचिकानि // 55 //