________________ अष्टमः सर्गः। रवैर्गुणास्फालभवैः स्मरस्य स्वर्णाथकर्णी बधिरावभूताम् / गुरोः शृणोतु स्मरमोहनिद्राप्रबोधदक्षाणि किमक्षराणि // 6 // रवैरिति / स्वर्णाथस्य स्वर्गनाथस्येन्द्रस्य "पूर्वपदारसंज्ञायामगः" इति णत्वम् / कौँ स्मरस्य गुणास्फालभवैः ज्याघट्टनप्रभवै रवैः बधिरावभूताम् / एवं बाधिये सति गुरोर्वृहस्पतेः सकाशात् स्मरमोह एव निद्रा तस्याः प्रबोधे दक्षाण्यक्षराणि विवेकज्ञा. नोपदेशवाक्यानि शृणोतु शृणुयात् किम् ? न शृणोत्येवेत्यर्थः। त्वद्विरहमोहान्धमेनं बृहस्पतिरपि बोधयितुं न प्रभवतीति भावः // 68 // __ कामदेवके प्रत्यञ्चा (धनुषकी डोरा) के खींचनेसे होनेवाले शब्दों (धनुष्टङ्कारों) से स्वर्गाधीश ( इन्द्र ) के कान बहरे हो गये हैं, अत एव वे (इन्द्र) कामजन्य मोह-निद्राको दूर करनेमें समर्थ, गुरु ( बृहस्पति, पक्षा०-श्रेष्ठजन ) के अक्षरों अर्थात् वचनों ( उपदेशों) को क्यों (या कैसे ) सुनें / [ किसी महान् शब्द अर्थात् कोलाहलके होते रहनेपर बहरे (शब्दान्तर सुननेमें असमर्थ ) कानोंसे दूसरे गुरुजनोंकी भी बात नहीं सुनाई पड़ती है। इन्द्र तुममें इतना अधिक आसक्त हो गये हैं कि वे अपने गुरु बृहस्पतिके उपदेशोंको भी नहीं सुनते हैं ] // 68 // अनङ्गतापप्रशमाय तस्य कदर्यमाना मुहुरामृणालम् / मधौ मधौ नाकनदीनलिन्यो वरं वहन्तां शिशिरेऽनुरागम् // 6 // अनङ्गेति / नाकनद्याः स्वर्णद्या नलिन्यो मधौ मधौ वसन्ते वसन्ते तस्येन्द्रस्यानङ्गतापप्रशमाय मुहुरामृणालं मृणालपर्यन्तम् , अभिविधावव्ययीभावः / कदाः कुत्सितवस्तूनि, “कोः कत्तत्पुरुषेऽचि" इति कोः कदादेशः / कदाः क्रियमाणाः कद र्थ्यमानाः उत्पीड्यमानाः सत्य इत्यर्थः / तत्करोतीति ण्यन्तात्कर्मणि लटः शानजा. देशः। शिशिरेऽनुरागं वरम् / वरमिति मनाक प्रिये। वहन्ता वासन्तिकोपचाराणां तासां तत्र पूर्वोक्तोपद्रवमयादिति भावः / वहेः स्वरितेवादात्मनेपदम् // 69 // __उस ( इन्द्र ) के काम-सन्तापकी शान्तिके लिए प्रत्येक वसन्त ऋतुमें पीडित होती हुई, मन्दाकिनीकी कमलिनियां शिशिर ऋतुमें अधिक प्रेम करती हैं। [शिशिर ऋतुमें कमलिनियों के पुष्प तथा पत्ते ही नष्ट होते हैं, मृणाल (डण्ठल) नष्ट नहीं होते, किन्तु वसन्त ऋतुमें तुम्हारे विरहमें इन्द्र के अधिक कामसन्तप्त होनेपर उसकी शान्ति के लिए कमलिनीके मृणालोंको उखाड़-उखाड़कर उपयोग करनेसे वे अत्यन्त पीडित ( नष्ट ) हो रही हैं अत एव शत्रुभूत शिशिर ऋतुसे भी वे स्नेह करती हैं, क्योंकि वही शिशिर ऋतु उन कमलिनियों की रक्षा वसन्त ऋतुकी अपेक्षा अधिक करती है / लोकमें भी कोई व्यक्ति अत्यन्त पीडित होनेपर रक्षा करनेवाले शत्रुमें भी स्नेह करने लगता है। इन्द्र तुम्हारे विरहसे प्रत्येक वसन्त ऋतुमें अधिक कामजन्य सन्तापसे पीडित होते हैं ] // 69 //