________________ अष्टमः सर्गः। दायक है, उसमें भी आनन्दित नहीं होना आश्चर्य है, अथवा लोकमें भी अप्रिय बोलनेवाले पुत्रमें कोई आनन्दित नहीं होता है / तथा केवल एक कलावाला हो चन्द्रमा इन्द्रको इतना अधिक सताता है कि वे उसी अपराध से नित्यकृत्यरूप शिवजीका पूजन भी छोड़ दिये हैं, फिर पूर्णिमाका चन्द्रमा होता तो इन्द्रको कितना कष्ट होता ?, अथवा-बाल शत्रुको भी उन्नत स्थानपर आश्रय देनेवाले शूलधारीके समीप कोई व्यक्ति नहीं जाता है। तुम्हारे विरहसे व्याकुल इन्द्रको पिककूजन नहीं रुचता, तथा उन्होंने नित्यकर्मरूप शिवपूजन भी छोड़ दिया है ] // 64 // तमोमयीकृत्य दिशः परागैः स्मरेषवः शकरशां दिशन्ति' / कुहगिरं चञ्चपुटं द्विजस्य राकारजन्यामपि सत्यवाचम् / / 65 / / तमोमयीति / स्मरेषवः कुसुमेषुबाणाः परागः रजोभिः करणर्दिशः शक्रदृशां सम्बन्धे तमोमयीकृत्य तत्प्रकृतवचने मयडन्तादभूततद्गावे च्विः / अत एव दिक्तम. सोरसम्बन्धे तत्सम्बन्धोक्तेरतिशयोक्तिः / कुहः कुह्वाख्या गीः कूजितं यस्य / अन्यत्र तु कुहूरमावास्येति गीर्वचनं यस्य / 'कुहूः स्यात्कोकिलालापनष्टेन्दुकलयो. रपि' इति विश्वः / तस्य द्विजस्याण्डजस्य कोकिलस्येत्यर्थः / अन्यत्र विप्रस्य 'दन्तविप्राण्डजा द्विजा' इत्यमरः। चञ्चपुटं मुखं राकारजन्यां पूर्णिमायामपि सत्यवाचं दिशन्त्यादिशन्ति कथयन्तीत्यर्थः / राकायामपि कुह्वामिव तमन्धीकुर्वन्तीत्यर्थः / अत्र श्लिष्टोपात्तयोर्द्वयोरपि कुबोर्द्विजयोश्चाभेदाध्यवसायमुक्त्वा कुहूत्वसत्यवादित्वस्य विरुद्धस्यापि पूर्वोक्तातिशयोक्तिहेतुना सिद्धाक्यार्थहेतुकं काम्यलिङ्गं सत् श्लेषातिशयोक्तेर्विरोधैरङ्गैः संकीर्यते / तेन शक्रस्य राकायां कुहुभ्रान्स्या भ्रान्तिमदलंकारो व्यज्यत इत्यूह्यम् // 65 // कामदेवके बाण (पुष्पमय होनेसे ) परागों (पुष्प-मकरन्दों, पक्षाo-धूलियों) के द्वारा दिशाओंको अन्धकारमय बनकर 'कुहू' शब्द करनेवाले द्विज (पक्षी अर्थात् कोयल, पक्षा०-ब्राह्मण ) के चञ्चुपुट ( पक्षा०-मुख) को पूर्णिमा की रात्रिमें भी सत्यवचनवाला अर्थात् आज कुहू ( अदृष्ट चन्द्रकलावाली अमावास्या तिथि) ही है पूर्णिमा नहीं, ऐसा बतलाते ( पाठा०-करते ) हैं / [ कामदेवके वाण पुष्पमय हैं, अतः इन्द्रको लक्ष्यकर छोड़े गये उनके परागोंसे पूर्णिमा तिथिको भी इन्द्र अमावास्या ही समझते हैं, कोयल कुहू शब्द करता है तो उसके द्वारा कामपीडित इन्द्र पूर्णिमा तिथिको भी अमावस्या मानते हैं / अन्य कोई सिद्ध वचनवाला ब्राह्मण भी पूर्णिमाको अमावस्या कहता है तो वह अपने तपोबलसे उस अमावस्या तिथिको ही पूर्णिमा सिद्ध कर देता है। इन्द्र तुम्हारे कामुक होकर पिकवचन सुननेसे कामान्ध हो रहे हैं और काम उन्हे सन्तप्त कर रहा है ] // 65 // शरैः प्रसूनैस्तुदतः स्मरस्य स्मत स कि नाशनिना करोति / अभेद्यमस्याहह ! वर्म न स्यादनङ्गता चेगिरिशप्रसादः // 66 // 1. "सृजन्ति" इति पाठान्तरम् /