________________ नैषधमहाकाम्बम् / दमस्वसा सेयमुपैति तृष्णा 'जिष्णोर्जगत्यप्रिमण्यलक्ष्मीम् / दृशां यदन्धिस्तव नाम दृष्टित्रिभागलोभानिमसौ विमति // 10 // दमेति / हे दमस्वसः ! दमयन्ति ! जिष्णोः शक्रस्य 'जिष्णुलेखर्षभः शक्रः' इत्यमरः / सेयं तृष्णा आशा जगति अग्रेभवमनिमम्, "अग्रादिपवाभिमज वक्तम्यः" तपतल्लेख्यं च तस्य लचमीमग्रगण्यतामुपैति अपूर्वस्वादिति भावः। कुतः यद्यस्माद्दृशामब्धिराकरोऽसाविन्द्रस्तव दृष्टेखिभागस्तृतीयांशः सायाशब्दस्य वृत्तिविषये पूरणार्थत्वाङ्गीकारात् / तत्र लोभेन तृष्णया आर्तिमाधि बिभर्ति नाम धत्ते खलु / तदेतदाब्यतमस्य कणिकालोभवचित्रीयत इत्यर्थः / तल्लेशलाभ एव स्वरष्टिसम्पत्तेः फलमित्यभिमानस्तस्येति भावः // 70 // हे दमयन्ति ! विजयशील ( पाठा०-इन्द्र ) की प्रसिद्ध अर्थात् अत्यन्त बढ़ी हुई यह तृष्णा ससारमें अग्रिम लेखकी शोभा ( अग्रगण्यता) को प्राप्त कर रहो है, जो नेत्रोंका समुद्र अर्थात् बहुत नेत्रोंवाला ( इन्द्र) भी तुम्हारे नेत्रके तृतीयांश (तिहाई भाग ) अर्थात् कटाक्षके लोमकी पीडाको धारण करते हैं। [ जो नेत्रोंका समुद्र है अर्थात् सहस्र नेत्रोंवाला है, वह भी तुम्हारे नेत्रके तृतीयांश ( तिहाई भाग ) के लोभसे पीडित हो रहा है / अतः यह बात संसार में सर्वप्रथम गिनी जायगी तथा संसार में भी जिसके पास हजारोंकी सम्पत्ति है वह एक तृतीयांशके लिए लोभकर दुःखित हो तो वह सर्वप्रथम गणनीय बात होगी। और देवोंका राजा इन्द्र भी तुम मानुषीको पानेके लिए दुःखित हो रहा है यह संसारमें सर्वप्रथम गणनीय बात होगी / इन्द्र तुम्हारे कटाक्ष की प्राप्तिके लोभसे पीडित हो रहे हैं ] // 70 // अग्नयाहिता नित्यमुपासते यां देदीप्यमानां तनुमष्टमूर्तेः / आशापतिस्ते दमयन्ति ! सोऽपि स्मरेण दासीभवितुं न्यदेशि / 01 / / अथ भगवतोऽग्नेरवस्थां वर्णयति-अग्नीति / अग्नयाहिता आहिताग्नयः, “वाहि. ताग्नयादिषु" इति निष्ठायाः परनिपातः।यां देदीप्यमानां जाज्वल्यमानां दीप्यमानां, दीप्यतेर्यङन्ताकर्तरि लट् / शानजादेशः / अष्टमूर्तेरीश्वरस्य तनुं नित्यमु. पासते, हे दमयन्ति ! आशापतिर्दिक्पतिः सोऽग्निरपि स्मरेण कत्रों तव दासीभवितुं न्यदेशि दासो भवेत्यादिष्ट इत्यर्थः // 71 // __ (अब (श्लो० 71 से 76 तक ) नल अग्निके दूतकार्यको आरम्भ करते हैं-) अग्निहोत्रीलोग अष्टमूर्ति ( शङ्करजी ) की देदीप्यमान जिस मूर्ति अर्थात् अग्निकी सर्वदा उपासना करते हैं, कामदेवने दिक्पाल उस अग्निको भी तुम्हारा दास बननेके लिये आज्ञा दे दी है। [ कामवशीभूत अग्नि भी, कामदेवको भस्म करनेके कारण शत्रु कामदेवकी भी 'तुम 1. "हरेः-" इति पाठान्तरम् /