________________ अष्टमः सर्गः। 41 तवानेन यौबनेन सार्धमच्छिदुरोऽविच्छिन्नः सन् / “विदिभिदिच्छिदेः कुरच्। परां कोटिमुत्कर्षमध्यरोहत् / तथा सुमनःशरस्य पुष्पेषोश्चापे गुणो मौम्यपि परामु. तरां कोटिमटनिमध्यरोहत् / अत्युत्कर्षाश्रयः कोटयः' इत्यमरः। अत्र प्रेमगुणयोः प्रकृतयोरेव विशेषणसाम्येनौपम्योपगमात् केवलप्रकृतविषया तुल्ययोगिता तयोरेव परां कोटिमिति श्लेषभित्तिकाभेदाध्यवसायरूपादतिशयोक्तिमूला यौवनेन साध. मिति सहार्थसम्बन्धोक्तेः सहोक्तिरित्यनयो सदरः॥६॥ ___ हे तन्वि ! ( पाठा०-हे भैमि !) तुममें इन्द्रका अखण्डित ( अतिशय दृढ ) प्रेम भी तुम्हारी इस युवावस्थाके साथ अत्यन्त अधिक बढ़ गया है तथा पुष्पवाण (कामदेव) की प्रत्यञ्चा भी धनुषकी दूसरी कोटी (किनारे) पर चढ़ गयी है / [ तुम्हारे युवावस्थाके प्रारम्भ से ही इन्द्रका तुममें प्रेम हो गया है, जैसे-जैसे तुम्हारी युवावस्था बढ़ती जाती है, वैसेवैसे तुममें इन्द्रका प्रेम भी दृढ़ होता जाता है। इतना ही नहीं, किन्तु कामदेवने भी अपने धनुषके दूसरे किनारेपर प्रत्यञ्चा चढ़ा लिया है अर्थात् तुम्हारी बढती हुई युवावस्थाके साथ इन्द्रका प्रेम भी बढ़ता जाता है और वे क्रमशः अधिक काम-पीडित होते जाते हैं ] // 61 // प्राची प्रयाते 'विरह दधत्ते तापाच्च रूपाच्च शशाङ्कशङ्की / परापराधैनिदधाति भानौ रुषारुणं लोचनवृन्दमिन्द्रः // 6 // प्राचीमिति / इन्द्रस्ते विरहं दधत् दधानः सन् अत एव प्राची दिशं प्रयाते प्राप्ते भानावधिकरणे तापाचन्द्रस्यापि विरहितापकारकत्वादिति भावः। रूपाच्च उदयकाले उभयोरपि रक्तत्वादिति भावः / शशाङ्कशङ्की चन्द्र इति भ्रान्त्या परापराधै. श्चन्द्रदोषस्तापादिभिः हेतुभिः रुषाऽरुणं लोचनवृन्दं निदधाति क्रोधाइहनिव अधिसहस्रेणापीक्षत इत्यर्थः / क्रोधान्धस्य कुतः सापराधानपराधविवेक इति भावः / अत्र कविसम्मतसादृश्येन भानौ शशाङ्कभ्रमाद् भ्रान्तिमदलङ्कारः // 62 // ___ तुम्हारे विरहको धारण करते हुए इन्द्र (पाठा०-ये इन्द्र तुम्हारे विरहसे) पूर्व दिशाको सूर्यके प्राप्त होनेपर सूर्योदय होनेपर सन्ताप तथा रूपसे चन्द्रोदय होनेपर विरही होने के कारण सन्तापसे तथा उदय कालसे रक्त वर्ण होने के कारण रूपसे सूर्यमें ही चन्द्रमा की शङ्का करते हुए अर्थात् सूर्यको चन्द्रमा मानते हुए दूसरेके अर्थात् चन्द्रमाके अपराधोसे ( सहस्र ) नेत्र-समूहको क्रोधसे रक्तवर्ण कर लेते हैं / [ प्रातःकाल जब रक्तवर्ण सूर्य उदय लेते है, तब तुम्हारे विरह से युक्त इन्द्र सन्ताप-कारक एवं लाल वर्ण होनेसे सूर्यको ही चन्द्रमा समझकर-यह चन्द्रमा मुझे बहुत सन्तप्त करता है, इस प्रकारके चन्द्र-सम्बन्धी अपराधके कारण क्रोधसे सूर्यपर ही आंखोंको लाल करते हैं, क्रोधी पुरुषको अपराधी तथा अनपराधी का विवेक नहीं रह जाता है। इन्द्र तुम्हारे विरहसे चन्द्रोदय होनेपर तो सन्तप्त 1. "विरहादयं ते" इति पाठान्तरम् /