________________ बष्टमः सर्गः। 436 न ?; हे कानतक विशाल नेत्रोंवाली ( दमयन्ती) !( कार्य में बाधक होनेसे अधिक कुशल प्रश्नमें ) विलम्ब करना व्यर्थ है, मेरी बात सुनो। [ किसी कार्यको पूरा करनेके लिए शरीर का नीरोग एवं चित्तका प्रसन्न रहना अत्यावश्यक होनेसे तथा धर्मशास्त्रके वचनानुसार क्षत्रियसै नोरोग-सम्बन्धी कुशल पूछनेका विधान होनेसे प्रश्नान्तरमें अधिक समय न लगाकर उक्त विषयमें ही कुशल प्रश्न करनेके बाद अपनी देव-दूत-सम्बन्धिनी बात सुनने के लिये नल दमयन्तीको सावधान कर देते हैं ] // 57 / / कोमारमारभ्य गणा गुणाना हरान्त त दिक्षु धृताधिपत्यान् / सुराधिराजं सलिलाधिपश्च हुताशनचायमनन्दनञ्च / / 58 // कौमारमिति / हे भैमि ! कौमारं नव कुमारवय आरभ्य "प्राणभृजातिवयोवचनोगात्रादिभ्योऽम्" / ते तव गुणानां गणाः दिनु धृताधिपत्यान् दिशामधीशान् सुराधिराजमिन्द्रं सलिलाधिपं वरुणश्च हुताशनमग्निश अर्यमनन्दनं सूर्यतनयं यमञ्च हरन्ति आकर्षयन्ति // 78 / / कुमारावस्थासे आरम्भकर तुम्हारे गुणों के समूह दिशाओं में आधिपत्य ( स्वामित्व ) को धारण करनेवाले अर्थात् दिक्पाल-देवराज इन्द्र, जलाधीश वरुण, अग्नि और सूर्यपुत्र यमको आकृष्ट करते हैं / [ तुम्हारी कौमारावस्थासे ही तुम्हारे गुण-समूहको सुनकर उक्त इन्द्रादि चारो दिक्पाल तुमसे आकृष्ट हो गये हैं ] // 58 // चरचिरं शैशवयौवनीयद्वैराज्यभाजि त्वयि खेदमेति / तेषां रुचश्चौरतरेण चित्तं पञ्चेषुणा लुण्ठितधैर्यवित्तम् // 56 // चरदिति / शैशवयोवनयोरिदं शैशवयौवनीयं, "वृदा" तब तत् ईराज्यं यो राज्ञोः (कर्म)ब्राह्मणादित्वात् ष्यअप्रत्ययः / तदाजि शैशवयौवनाम्यराज्य. याक्रान्तायामित्यर्थः। एतेनास्या वयःसन्धिरुतः, तस्यां त्वयि चिरं चरद्वर्तमानं तेषामिन्द्रादीनां चित्तं (कर्तृ) रुचः कान्तेश्चौरतरेण विरहितजोहारिणेत्यर्थः / पञ्चेषुणा लुण्ठितधैर्यवित्तम् अपहृतधर्यधनं सत् खेदमति दैराज्ये प्रजानां चोरवाया जायत इति भावः / वयोद्वयद्वैराज्ये पञ्चेषुणा चोरेण तेषां धर्यवित्तं इतमिति रूप. कम् / तद्धेतुकत्वात् खेदस्य वाक्यार्थहेतुकं कायलिमिति सारः॥ 59 // बाल्य तथा तारुण्यकी (दो अवस्थारूप ) राज्यद्वयके प्राप्त अर्थात् वाल्य तथा तारुण्यकी अवस्थाओंके मध्यमें स्थित तुममें बहुत समयसे वर्तमान उन (इन्द्रादि चारो दिक्पालों) का (विरहियोंके मुखकी ) कान्ति की अतिशय चोरी करनेवाले पञ्चबाण (कामदेव ) से लूटे (अपहरण किये-चुराये) गये, धैर्यरूपी धनवाला चित्त कब तक खेदको प्राप्त करेगा ? [वाल्य-यौवनावस्था की सन्धिमें स्थित तुममें उन इन्द्रादि दिक्पालोंका चित्त आसक्त हो रहा है और विरही होनेसे उनकी कान्तिको चुराने ( नष्ट करने ) वाला एवं पांच बाण धारण करनेवाला कामदेवरूप डाकू उनके धैर्यरूपी धनको लूट लिया है। ऐसा (कान्ति 28 नै०