________________ 426 नैषधमहाकाव्यम् / स्तुतिपाठकोऽयमिति भ्रमस्य भूमिता विषयित्वमेवास्तु / 'बन्दिनः स्तुतिपाठका' इत्यमरः / अवन्दिषु वन्दिभ्रमः श्रोतृदोषो न वाग्वैफल्यं खलत्वे एव स्तोतृदोषः। प्रत्युत सुगुणस्तुतिस्तस्य गुण एवेति तदङ्गीकरणमिति भावः // 32 // ___ अत्यधिक गुणयुक्त वस्तुके विषयमें चुप लगाना अर्थात् उसकी प्रशंसा न करना असह्य कॉटेके समान वचनके जन्मलेनेकी निष्फलता होती है ( अथवा-वह वचनके जन्मलेनेकी विफलता असह्य शल्यरूप होता है ) और थोड़ा बोलनेमें दुष्टता होती है; ( इस कारण ) वन्दियों के भ्रमका स्थान बनना ही ठीक है। [ अतिगुणवान् वस्तुके विषयमें कुछ नहीं बोलना बोलनेवाले के लिये शल्यतुल्य दुःखदायी होता है, तथा उसके विषय में थोड़ा बोलनेमें उसकी दुष्टता प्रकट होती है, इस कारण गुणसम्पन्न पुरुषकी विस्तृत प्रशंसा करनेवाले व्यक्तिको सुननेवाला भले ही वन्दी (भाट, चारण आदि) समझें, किन्तु उस गुणीकी प्रशंसा करना ही उचित है / इस पद्यको कविकी या स्वयं दमयन्तीकी ही उक्ति समझनी चाहिये] // कन्दप एवेदमावन्दत त्वां पुण्येन मन्ये पुनरन्यजन्म | चण्डोशचण्डाक्षिहुताशकुण्डे जहाव यन्मन्दिरमिन्द्रियाणाम् / / 33 / / / __ अथ स्तौति-कन्दर्प इत्यादि / कन्दर्प एव पुण्येन सुकृतवशेन इदं त्वां स्वः पमन्यजन्म जन्मान्तरं पुनरविन्दतेति मन्ये इत्युत्प्रेक्षा। अन्यथा कथमीग्रपमिति भावः / किं तत्पुण्यं तदाह-चण्डीशस्य हरस्य चण्डं करमति तृतीयनेत्रं तदेव हुता. शस्तस्य कुण्डमग्न्यायतनं तस्मिन्निन्द्रियाणां मन्दिरमिन्द्रियाणामाश्रयः शरीर. मिति यावत् / तज्जुहाव तेन पुण्येनेति पूर्वेण सम्बन्धः // 33 // जो ( कामदेवने ) शङ्करजीके भयङ्कर ( तृतीय ) नेत्ररूप अग्निकुण्डमें अपने शरीरको हवन कर दिया, उसी पुण्यसे कामदेव ही आपको पुनर्जन्मरूपमें प्राप्त किया है, ऐसा मैं मानती हूं। [ कामदेवको शङ्करजीने नहीं जलाया, किन्तु वह पहलेसे भी अधिक सुन्दर शरीर पानेके लिये अपने शरीरको शङ्करजीके तृतीय नेत्ररूपी अग्निकुण्डमें हवन कर पुनर्जन्ममें आपको पाया है / अन्य कोई भी व्यक्ति सामान्य वस्तुको अग्निकुण्डमें हवन करनेसे उत्पन्न पुण्यके द्वारा पहलेको अपेक्षा अधिक सुन्दर वस्तुको प्राप्त करता है / आप कामदेवसे भी अत्यधिक सुन्दर हैं ] // 33 // शोमायशोभिर्जितशेवशैलं करोषि लज्जागुरुमौलिमलम् / दम्रो हठाच्छोहरणाददस्रौ कन्दपमप्युज्झितरूपदर्पम् / / 34 / / शोभेति / किञ्च हठाद् प्रसह्य श्रियः सौन्दर्यस्य हरणाद्धेतोः शोभायशोभिः सौन्दर्यकीर्तिभिः जितशेवशैलं निर्जितकैलासमैलमिलाया अपत्यं पुरूरवसम् / "तस्येदम्" इत्यण्प्रत्ययः / पर्यवसानाद्विशेषलाभः / लज्जया गुरुमौलिं दुर्भरशिरसं करोषि / दनावश्विनीसुतावुदसावुद्तबाप्पौ करोषि, रोदयसीत्यर्थः / कन्दर्पमप्यु. मितरूपदपंकरोषि, कायकान्त्या सर्वानतिशय्य खेलसीत्यर्थः // 34 //