________________ अष्टमः सर्गः। 421 कृस्वेति / विधिविधाता बहुभिवर्णैः सितासितरूपैचित्रे सुदृश्ये तलक्षणस्वादिति भावः / ते तव शो कृत्वा निर्माय कृष्णसारस्य मृगस्य सम्बन्धियोः तयोरशोर. दरे समीपे जाग्रत्या विदरप्रणाल्याः स्फुटनमार्गस्य नेत्रप्रान्तवर्धचन्द्ररेखाविशेष. स्य रछलात् / 'विदरः स्फुटनं भिदा' इत्यमरः / अर्धचन्द्रं गलहस्तिकामयच्छत् तरसमकवानहरवादिति भावः / 'अर्धचन्द्रस्तु चन्द्रके गलहस्ते बाणभेदेऽपि' इति विश्वः / छलादयच्छदिति सापह्नवोस्प्रेक्षा व्य काप्रयोगाद्वन्या // 38 // ब्रह्माने बहुत वर्गों ( फूष्ण, श्वेत और रक्तरूप ) से विचित्र ( अथवा-आश्चर्यजनक) बनाकर कृष्णसार ( केवल कृष्ण अर्थात् काला ही जिसमें सारभूत है अन्य इवेत तथा रक्त नहीं ऐसे ) मृगके उन नेत्रों के पार्वस्थित गर्तरूप रेखाके बहानेसे अर्द्धचन्द्र (गलहस्त अर्थात् गर्दनियां ) दिया है क्या ? / [ आपके नेत्रोंको ब्रह्माने कृष्ण-श्वेत-रक्तवर्णसे बहुत विचित्र बनाया यह देख कृष्णसार (जिसमें केवल कृष्ण वर्ण ही सारभूत था, अन्य वर्ण नहीं थे ऐसे) मृगको आँखें आपकी आँखोंसे समानता करने लगीं, अतः भले-बुरेके परीक्षक ब्रह्माने उस मृगकी आँखों को गर्दनियां देकर बहिष्कृत कर दिया, वही चिह्न मृगों की भाँखों के नीचे गर्न ( गढा ) रूप रेखामें दृष्टि गोचर हो रहा है / अन्य भी किसी बड़ेकी बराबरी करनेवाले नीच व्यक्तिको न्यायकर्ता परीक्षक गर्दन में हाथ डालकर बाहर कर देता है ] // 38 // मुग्धः स मोहात् सुभगानदेहाहदद्वद्धृरचनाय चापम् / भ्रभङ्गजेयस्तव यन्मनोभरनेन रूपेण यदा तदाभूत् / / 36 // मुग्ध इति / भवद्भ्यो रचनाय निर्माणाय चापमुपादानस्वेन वदत् ब्रह्मण इति शेषः / 'नाभ्यस्ताच्छतुरिति नुम्प्रतिषेधः। स मनोभूमोहादविमृश्यकारिवलक्षणा. प्रवृत्तिनिमित्तान्मुग्धो मुग्धशब्दवाच्योऽभूत् सुभगात् सुन्दरादेहातु न / पूर्व कायः सौन्दर्यमुग्ध इत्युच्यते / सम्प्रति तु मौग्ध्यादित्यर्थः / 'मुग्धः सुन्दरमूठयोः' इति विश्वः / कुतः यद्यस्मात् तवानेनेति हस्तनिर्देशः। रूपेण सौन्दर्येण करणेन यदा तदा सर्वदेत्यर्थः / भ्रूभङ्गेण भ्रक्षेपमात्रेण जेयो जेतुं शक्योऽभूत् / कामस्थां रूपेण जेतुमशक्तोऽपि चापेनापि शक्नुयात् / सम्प्रति चापदानादुभयथापि भ्रष्टोऽभूदिति भावः // 39 // आपके भ्रद्वयकी रचना करने के लिए कामदेवने ब्रह्माको अपना चाप देता हुआ मोह (मूर्खता ) से मुग्ध ( मूढ ) हो गया, आपके सौन्दर्यसे मुग्ध (सुन्दर ) नहीं हुआ। इस कारण वह कामदेव सर्वदा आपके भ्रूभङ्ग मात्रसे ( केवल भ्रूको थोड़ा टेढ़ा करनेसे ही आपके) इस रूपके द्वारा जीतने योग्य हो गया। [चाप सहित होकर भी कामदेव जब आपको नहीं जीत सकता था नब अपने धनुषको आपके भ्रूद्वय बनाने के लिये देकर धनुषसे रहित वह आपको कैसे जीत सकता है ? अर्थात् कदापि नहीं जीत सकता, वह क्षुद्रतम शत्रुके समान थोड़ा भ्रूभङ्ग करनेसे हो जीतने योग्य हो गया है / अन्य भी कोई मूर्ख अपना शत्रुके