________________ 264 षष्ठः सर्गः। लोनश्चरामीति हृदा ललग्जे हेला दधौ रक्षिजनेऽलसम्जे। द्रक्ष्यामि भैमीमिति संतुतोष दूत्यं विचिन्त्य स्वमसौ शुशोच / / 10 // लीन इति / असौ नलः, अस्पैः सजे समद्धे / 'सन्नद्धो वर्मितस्सज्जे' इत्यमरः / रविजने राजकुलरक्षकवीरवर्ग, हेलामवज्ञां दधाविति गर्वोक्तिः / लीनः (कष्टं शूरोऽपि) गूढश्वरामीति हेतोहृदा ललग्जे / भैमी द्रच्यामीति संतुतोष / स्वं स्वकीयं, दूत्यं विचिन्त्य शुशोचेति निर्वेदोक्तिः / अत्र गर्वलज्जाहर्षनिवेदानां बहुना भावानां परस्परोपमर्दैन समावेशानावशबलतोक्ता // 10 // ___ इस नलने हथियारोंसे सुसज्जित रक्षकों (पहरेदारों) में तिरस्कार धारण किया ( हथियारोंसे सुसज्जित होनेपर भी ये पहरेदार मेरा क्या बिगाड़ेंगे ? इस भावनासे उन्हें तिर• स्कारपूर्वक देखा ) / छिपकर (मैं) घूम रहा हूँ, यह (सोचकर) हृदयसे लज्जित हुए (यद्यपि ये पहरेदार मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते, तथापि मैं राजा एवं शूरवीर होकर भी चोरके समान छिपकर ( इन्द्र के दिये वरदात ( 5 / 137 ) से अन्तर्धान होकर ) घूम रहा हूं, यह विचारकर मन ही मन वे लज्जित हुए / दमयन्तीको देबूंगा, ( यह सोचकर ) अत्यन्त तुष्ट हुए और अपनेको दूत सोचकर ( मुझे इन्द्रादि देवोंका दूत होनेसे दमयन्तीको अब अपनी प्रेयसी नहीं समझनी चाहिए, अतः देखनेसे आनन्दित होनेका विचार करना व्यर्थ है यह विचारकर) शोक करने लगे। [ यहां पर 'हृदा' पदका सब क्रियाओंके साथ सम्बन्ध होनेसे नलने उक्त चारों विचारों को हृदयसे (मनमें ) ही किया, प्रकटरूपसे हाथ-पैर आदि से कोई व्यापार नहीं किया, यह समझना चाहिये ] // 10 // अथोपकायोममरेन्द्र कार्यात्कक्ष्यासु रक्षाधिकृतैरदृष्टः / मैमी दिक्षुबहु निक्षु चक्षर्दिशन्नसौ तामविद्विशतः / / 11 // अथेति / अथानन्तरं, असौ नलः, कयासु गृहप्रकोष्ठेषु। 'कच्या प्रकोष्टे हादेः' इत्यमरः / रक्षायामधिकृतः, रक्षिजनः, अदृष्टस्सन् भैमी दिहतुः द्रष्टुमिच्छुः / अतएव दिन चतुर्बहु भूयिष्टं, दिदान विशङ्कस्सन् , तां पूर्वनिर्दिष्टां, उपकायों राजसदनम् / 'उपकार्या राजसद्मनि' इति विश्वः / अमरेन्द्राणां कार्यात् प्रयोजनात् हेतोरविशत् // इसके बाद देवताओं तथा इन्द्रके ( अथवा-प्राधान्यतः देवराज अर्थात् इन्दके ) कार्य (दमयन्ती प्राप्तिरूप कार्य, अथवा-अन्तर्षि होनेका वरदानरूप कार्य) से कक्षाओं (डयौढ़ियों) पर स्थित रक्षकों ( पहरेदारों ) से नहीं देखे गये, ( अत एव ) निर्भय, और दमयन्तीको देखने के इच्छुक इस नलने दिशाओं में नेत्रको बहुत फेंकते हुए नर्थात् सब और बार-बार देखते हुए उस राजभवन में प्रवेश किया // 11 // अयं क इत्यन्यनिवारकाणां गिरा विभुभरि विभुज्य कण्ठम् / दृशं दधो विस्मयनिस्तरङ्गां विलंधितायामपि राजमिहः // 12 / / अयमिति / विभुः समर्थः, राजा सिंह इव राजसिंहः राजश्रेष्ठः, उपमितसमासः /