________________ नैषधमहाकाव्यम् / बन्न ( कोल्हू ) से खींचा (पेरकर निकाला ) है क्या ? [चकोरका नेत्र चन्द्रिकाका पान करनेसे, हरिणके चन्द्रमाके अङ्कमें निवास करनेसे तथा उत्पलका चन्द्रवंशी होनेके कारण रात्रिमें चन्द्रामृत-सम्बन्ध होनेसे उसके श्रेष्ठवस्तु का आकर्षण करना उचित ही है / लोकमें मी गन्ने आदिके सारभूत रसको कोल्हूमें पेरकर यत्नपूर्वक निकालते हैं दमयन्तीके नेत्र चकोरनेत्र हरिणनेत्र तथा कमलसे भी श्रेष्ठ हैं ] // 32 // ऋणीकृता कि हारणीमिरासीदस्याः सकाशान्नयनद्वयश्रीः / भूयोगुणेयं सकला बलाद्यत्ताभ्योऽनयाऽलभ्यत विभ्यतीभ्यः / / 33 / / ऋणीकृतेति / हरिणीमिरस्या दमयन्त्याः उत्तमर्णाया इति भावः। सकशाब. यनयस्य श्रीः शोभा ऋणीकृता ऋणत्वेन गृहीतासीत् किमित्युत्प्रेक्षा। यद्यस्मात् , अनया मेम्या बिभ्यतीभ्यः त्रस्यन्तीभ्यः, त्रासावस्थायां शोभातिशयः। अतिभीरुणा निःशेषमणं दीयत इति भावः / ताभ्यो हरिणीभ्यो भूयोगुणा द्वित्रिगुणेयं नयनशोभा सकला निश्शेषा बलादलभ्यत लब्धा // 33 // हरिणियोंने इस दमयन्तीके पाससे दोनों नेत्रोंकी कान्तिको ऋण लिया है क्या ? क्योंकि इस दमयन्तीने डरती हुई उन मृगियोंसे अनेक गुणित (कई गुना) व्याज सहित नेत्रद्वयकी शोभाको बलात्कारसे ग्रहण किया है। [ लोकमें भी प्रसिद्धि है कि उत्तमर्ण (ऋण दाता ] ऋणग्रहीताको ऋणरूपमें धनादि देकर बादमें डरते हुए ऋणग्रहीतासे ब्याजसहित कई गुना मूलधन बलात्कारपूर्वक ले लेता है। हरिणीके नेत्रोंसे दमयन्तीके नेत्रोंकी शोभा अनेक गुनी उत्तम है ] // 33 // दृशौ किमस्याश्चपलस्वभावे न दूरमाक्रम्य मिथो मिलेताम् / न चेत्कृतः स्यादनयोः प्रयाणे विध्नः श्रवः कूपनिपातभोत्या / / 34 // हशाविति / चपलस्वभावे चञ्चलशीले, अस्या भैग्याः दृशौ दूरमाक्रम्य अम्बुपर्यन्तं गत्वेत्यर्थः। मिथो न मिलेतां न सङ्गच्छेयाताम्, काकुः / मिलतेलिकि ततस्तामादेशः / किं त्वनयोईशोः प्रयाणे दूरगमने श्रवसी श्रोत्रे एव कूपाविति रूपकम् / तयोर्निपातानीत्या का विघ्नः कृतो न स्याच्चेत् / अत्र दृशोः कर्णान्तविश्रान्तयोः कूपपातभयहेतुकरवोत्प्रोक्षारूपकोज्जीवितेति सङ्करः॥३४॥ इस दमयन्तीके चञ्चल स्वभाववाले ( कर्णान्त विशाल) नेत्र दूर तक जाकर परस्परमें क्या नहीं मिल जाते ? अर्थात् अवश्य मिल जाते, किन्तु इन नेत्रोंके जानेमें कान-कृएमें गिरनेका भय बाधा नहीं करता [ दमयन्तीके नेत्र कानतक पहुँचे हुए हैं तथा चञ्चल स्वभाव वाले हैं / अतः वे और भी आगे बढ़कर परस्परमें (शिरके पिछले भागमें जाकर ) अवश्य मिल जाते, किन्तु कूपवत् गम्भीर कानमें गिरनेके भयसे वे आगे नहीं बढ़कर वहीं रुक गये हैं / ] जिस प्रकार कूएमें गिरनेके भयसे अन्य मी कोई व्यक्ति आगे नहीं बढता