________________ सप्तमः सर्गः। 406 प्राप्तकर अपनी ज्ञानराशिको उत्तरोत्तर बढ़ाकर संसारमें सबसे श्रेष्ठ बन जाता है / दमयन्ती विश्वातिशायि सौन्दर्यवाली युवावस्थाको प्राप्त तथा कामचातुरीमें अतिनिपुण है ) // 107 // इति स चिकुरादारभ्यैतां नखावधि वर्णयन् हरिणरमणीनेत्रां चित्राम्बुधौ तरदन्तरः / हृदयभरणोवेलानन्दः सखीवृतभीमजा. नयनविषयीभावे भावं दधार धराधिपः // 108 / / इतीति / इतीत्थं स धराधिपो नलो हरिणरमणीनेत्रामेतां भैमी चिकुरात् केश. पाशादारभ्य नखावधि पदाङ्गुष्ठनखान्तं वर्णयश्चित्राम्बुधौ आश्चर्यसागरे तरदन्तरः प्लवमानान्तरङ्गस्तथा हृदये भरणात् पूरणात् उढेलो निःसीमः आनन्दो यस्य स सन् सखीवृताया भीमजाया भैम्या नयनविषयीभावे हम्गोचरखे भावमभिप्राय दधार, तस्याः प्रत्यक्षीभवितुमैच्छदित्यर्थः // 108 // इस प्रकार ( श्लो० 20--106) मृगीतुल्य नेत्रवाली इस दमयन्तीके केशसे नखतक वर्णन करते हुए, आश्चर्यरूप समुद्रसे तैरते हुए अन्तःकरणवाले, (दमयन्तीके देखनेमात्रसे) हृदयके परिपूर्ण होनेसे तटाकान्त आनन्द (-रूप समुद्र) वाले होते हुए वे राजा नल सखियोंसे परिवृत भीमतनया ( दमयन्ती) के प्रत्यक्ष (सामने ) होनेका विचार किया अर्थात् प्रकट हो गये / [ जैसे समुद्र भीतर जलके भरजानेपर उसे तटके बाहर फेंक देता है, वैसे ही दमयन्तीको देखकर नलका हृदय पहलेसे ही आनन्दपूर्ण हो गया था, फिर उसके अङ्ग-प्रत्यङ्गका वर्णन करने से वह आनन्दसागर उमड़ पड़ा। अष्टमसर्गके प्रथम श्लोकमें ( उस दमयन्तीके प्रत्यक्ष ( सामने प्रकट) होनेकी नलने इच्छा की) यह अर्थ ठीक नहीं होता, किन्तु 'प्रकटो जातः' (प्रकट हुए) यह नारायणभट्ट-सम्मत अर्थ युक्त प्रतीत होता है। श्रीहर्ष कविराजराजिमुकुटालङ्कारहीरः सुतं श्रीहीरः सुषुवे जितेन्द्रियचयं मामल्लदेवी च यम् / गौडोर्वीशकुलप्रशस्तिभणितिभ्रातर्ययं तन्महा काव्ये घारुणि नैषधीयचरिते सर्गोऽगमत्सप्तमः / / 106 / / श्रीहर्षमित्यादि / गौडोर्वीशकुलप्रशस्तिभणितिर्नामास्य कृतः प्रबन्धः तद्भातरि तरसमानकर्तृक इत्यर्थः // 109 // इति मल्लिनाथसूरिविरचिते 'जीवातु' समाख्याने सप्तमः सर्गः समाप्तः॥७॥ 1. "-भगिनी-" इति पाठान्तरम् /