________________ 41 नैषधमहाकाव्यम् / अनिर्वचनीपो निर्वस्तुमशयो मोहः अप्रतिपत्तिस्पा सा भानन्दमग्नेस्यर्थः / सा भैमी विमुक्तसंसारिणोदशे अवस्थे तपोषौं रसौ स्वादी ताम्या ही स्वादी पस्प तदहिस्यावतारक स्वादमित्यर्थः / म राबमुक्लासमुल्लासताममुक्त भुक्तवती / "भुजोऽनवमे" इति लुछता। आनन्दपारवश्यान्नैव किनिद्विवेदेश्यर्थः // 15 // ___ उस ( नलको देखने के ) समय ( नलके अलभ्य दर्शनलाभसे ) भानन्दस्वरूपा तथा अत्यन्त अनिर्वचनीय मोह (मशान या किंकर्तव्यमूढता, अथवा अतिशय सुरक्षित अन्त: पुरमें नल कैसे मा गये, वे नहीं है क्या ? इत्यादि भ्रम ) वाली उस दमयन्तीने ( प्रहमतुल्य नलदर्शनजन्य मानन्दसे ) मुक्त तथा ( मोह या भ्रम होनेसे ) संसारीकी अवस्थाओंसे शुद्ध उल्लास या मधुर विविध स्वारको प्राप्त किया। [ मुक्त व्यक्ति संसारी नहीं होता एवं संसारी रहता हुआ व्यक्ति मुक्त भी नहीं होता किन्तु दमयन्तीने एक साथ ही दोनों अवस्थाओंका आनन्द प्राप्त किया, यह आश्चर्य की बात है ] // 15 // दते न लश्रीभृति भाविभाषा कानीयं 'जानतेोत नूनम् / न स व्यधान्नैषधकायमायं विधिः स्वयं दूतमिमां प्रतीन्द्रम् / / 16 / / __अथ भैमीदूतसम्भाषणं विवतुर्नलेकबद्धप्राणायाः तस्यास्पदमनौचित्यं द्वाभ्यां परिहरति-दूत इत्यादि / नलस्य श्रियमिव श्रियं बिभर्तीति नलश्रीभृत् तत्सदृश इत्यर्थः / निदर्शनालङ्कारः। तस्मिन् दूते भाविभावा भविष्यदनुरागा इयं भैमी कलकिनी भग्नव्रता जनिता भविष्यतीति मरवा जनिधातोलृट् / विधिर्विधाता इमां भैमी प्रति नैषधस्य काय एव माया कप यस्य तं नलरूपधारिणं स्वयं साक्षादिन्द्र. मेव दूतं न संग्यधात् न कल्पितवान् , उक्तदोषपरिहारायैवेन्द्रस्य ताहशी वुद्धिं नाजीजनदित्यर्थः / नूनमिति वितर्के वस्तुविचारस्वान्नायमुत्प्रेक्षालङ्कारः। दूतभाव. तिरोहितस्यापि तस्य वस्तुनो नलस्वान्नायं कलङ्क इति भावः / / 16 // __ नलकी शोभा अर्थात् स्वरूपको धारण करनेवाले दूतमें भाबी भाव करनेवाली यह ( पतिव्रता ) दमयन्ती ( अन्य पुरुषमें भाव करनेसे ) निश्चय ही कलङ्कयुक्त न होगी, इस लिये उस ब्रह्माने इस दमयन्तीके स्वयं इन्द्रको ही नलरूपधारी दूत नहीं बनाया। [ यदि इन्द्र स्वयं नलका रूप धारण कर दूत बनकर दमयन्तीके यहां जायेंगे तो नलरूपधारी इन्द्रको वास्तविक नल समझकर अनुराग करनेके कारण पतिव्रता दमयन्तीको दोष लगेगा, इसी विचारसे ब्रह्माने इन्द्रको नलरूपधारी दूत बनाकर दमयन्तीके यहाँ नहीं भेजा। दूतरूपमें आने पर भी वास्तविक नल होनेसे उनमें अनुराग करनेवाली पतिव्रता दमयन्तीके पातिव्रत्य में कोई क्षति नहीं हुई ] / / 16 / / पुण्ये मनः कस्य मुनेराप स्यात्प्रमाणमास्ते यदधेऽपि धावत् / तचिन्ति चित्तं परमेश्वरस्तु भक्तस्य ष्यत्करुणो रुणद्धि / / 17 / / 1. "जनिमेति" इति पाठान्तरम् /