________________ अष्टमः सर्गः। 421 मधुप्रायः वचोभिः पृच्छा कुशलप्रश्नः / 'प्रश्नोऽनुयोगः पृच्छा च' इत्यमरः। भिदादि. स्वादङ प्रत्ययः। विधेया कर्तव्या। 'तृणानि भूमिरुदकं वाक चतुर्थी च सूनृता। अप्रणोद्योऽतिथिः सायमपि वाग्भूतृणोदकै.' इति स्मरणात् तृणाद्यसम्भवे तत्स्थाने स्वशरीरादिकमपि देयम् / अशक्तस्यानुकल्पेनापि शास्त्रार्थसिद्धेरिति भावः // 27 // _ विनयादि शीलके द्वारा ( या सदाचार या स्वभावसे ) अपने शरीरको भी तृण बनाना चाहिये अर्थात् तृण जिस प्रकार अतिनम्र होता है उसी प्रकार अपने शरीरको नम्र करना चाहिये (प्रणामादिमे नम्र बनना चाहिये; पक्षा०-शरीरको तृणस्थानीय बनाना चाहिये ), अपने आसन की भूमिको भी छोड़कर देना चाहिये (स्थानान्तरके न होनेपर अपना आसन या भूमि छोड़कर उसे बैठने के लिये देना चाहिये ), आनन्दजन्य आंसूको जल ( पादप्रक्षालनार्थ जल ) बनाना चाहिये (जलके मिलनेकी सम्भावना नहीं होनेपर आनन्दजन्य आंसू को ही जल-स्थानीय समझना चाहिये, पक्षा०-अतिथिको देखकर हर्षित होना चाहिये।) और मधुर वचनोंसे (कुशलादि ) प्रश्न करना चाहिये। [ अतिथि से मधुर भाषणकर उसके स्थान, वंश, कुशल, आगमन कारण आदिके विषयमें प्रश्न करना चाहिये ] // 21 / / पदापहारेऽनुपनम्रतापि सम्भाव्यतेऽपा स्वरयापराधः / तत्कतुमर्हालिसञ्जनेन 'स्वसंभृतिप्राअलतापि तावत् / / 22 / / पदेति / पदोपहारे पादोपचारप्रस्तावे स्वरया वेगेन अपामुदकानां अनुपनम्रता असन्निहितत्वमपराधः अपचारः सम्भाव्यते अपराधत्वेन गृह्यत इत्यर्थः / तत् तस्मात् अञ्जलिसानेनाअलिबन्धेन तत्पूर्वकस्वमित्यर्थः / स्वस्यात्मनः संभृत्या सम्भरणेन सन्निधानेन प्राञ्जलता आजवं विधेयमिति यावत् , सापि तावत्कर्तुमर्हा आतिथ्यक्रियासामर्थ्य विनयाचरणेनापि तचित्तोपार्जनं कर्तव्यम् / अन्यथा प्रत्यवा. यादिति भावः // 22 // पादप्रक्षालनार्थ शीघ्र जल नहीं लाना अपराध माना जाता है, उसे करनेके लिये तबतक (या सर्वथा ) हाथ जोड़नेमे समीपमें अपनी उपस्थिति ( अथवा-स्वयं विनम्रता, अथवाआतिथ्य-सामग्री ) करनी चाहिये अर्थात् जल आने के पूर्व हाथ जोड़कर विलम्बसे जल आनेके अपराधकी क्षमा-याचना करनी चाहिये / ( अथवा-जल लाने के पूर्व स्वयं अतिथिके सामने हाथ जोड़कर उपस्थित नहीं होना अपराध समझा जाता है, अतः तबतक (जल आनेके पूर्व ) हाथ जोड़कर अतिथिके सामने नमस्कार कर उपस्थित होना चाहिये, इससे सम्पूर्ण अतिथि-सत्कार सम्पन्न हो जाता है) // 22 // पुरा परित्यज्य मयात्यसजि स्वमासनं तत्किमिति क्षणन्न / अनहमप्येतदलक्रियेत प्रयातुमीहा यदि चान्यतोऽपि / / 23 // पुरेति / मया स्वामात्मीवमासनं पुरा पूर्व स्वदर्शनषण एवं परित्यज्य तत 1. "सुसंभृति" इति पाठान्तरम् /