________________ अष्टमः सर्गः / 417 तस्याः भैम्याः लोचने एव खञ्जनौ नेत्रापमानपक्षिणी / 'खारीटस्तु खानः' इत्यमरः। ताभ्यां तस्य केशपाशस्य सम्बन्धिनमनुबन्धं तत्र सक्तिं बन्धनच विमोच्य मोचयित्वा गन्तुं नापारि न शेके / पारयतेर्भावे लुङ / श्लिष्टविशेषणं रूपकम् // 13 // महीन तथा धन नलके केश-समूहमें (पक्षा०-केशरूपी जालमें ) संलग्न होकर ( पक्षा०-गिरकर अर्थात् फँसकर ) निश्चल होते हुए (अनुरागसे निश्चल भावसे देखते हए, पक्षा०-जालसे छुटकर बाहर निकलनेमें असमर्थ होते हुए ) उस दमयन्तीके नेत्ररूपी दो खञ्जन पक्षी उस केशके अनुराग ( पक्षा०-बन्धन ) को छोड़कर अन्यत्र जाने ( पक्षा०जालसे छूटकर बाहर निकलने ) के लिये समर्थ नहीं हो सके। [जिस प्रकार खञ्जन (खजरीट ) पक्षी महीन एवं सघन केशनिर्मित जालमें फँसकर बाहर निकलने में असमर्थ हो जाते हैं, उसी प्रकार खञ्जनके तुल्य सुन्दर दमयन्तीका नेत्रद्वय महीन एवं धन नलके केश-समूहको देखनेमें संलग्न होकर अनुरागवश उसे छोड़कर दूसरे अङ्गको देखने में असमर्थ हो गया / सूक्ष्म एवं धन होनेसे शुभ लक्षणोंसे युक्त नलके केशसमूहको दमयन्ती सानुराग होकर देखने लगी] / / 13 // भूलोकमतुमुखपाणिपादपद्मः परारम्भमवाप्य तस्य / दमस्वसुदृष्टिग्मरोजराजिश्चिरं न तत्याज सबन्धुबन्धम / / 14 / / भूलोकेति / दमस्वसुदृष्टय एव सरोजानि क्रियाभेदाबहुत्वं तेषां राजिः भूलोक भर्तुस्तस्य नलस्य मुखं च पाणी च पादौ च मुखपाणिपादम् प्राण्यङ्गत्वादेकवद्भावः। तदेव पद्मानि तैः सह परीरम्भमाश्लेषमवाप्य समाना बन्धवः सबन्धवः / 'जातिजनपद' इत्यादिना समानशब्दस्य 'स' भावः / तेषु बन्धमासक्ति चिरं न तत्याज / स्निग्धा हि बन्धवः चिरमनाश्लिष्य न मुश्चन्तीति भावः / पद्मत्वसजातित्वात् सबन्धुत्वम् // 14 // दमयन्तीके नेत्ररूप कमलसमूहने उस राजा नल के मुख, हाथ और चरणरूप कमलोंका आलिङ्गनकर अर्थात् देखकर समान बन्धुके बन्धन (अनुराग-बन्धन अर्थात् दर्शनासक्ति) को देरतक नहीं छोड़ा। [जिस प्रकार कोई व्यक्ति समान बन्धुको प्राप्तकर देरतक उसका आलिङ्गन करना नहीं छोड़ता, उसी प्रकार दमयन्तीके कमल तुल्य नेत्र नलके कमलतुल्य मुख, हाथ और पैरको देरतक देखते रहे / नलके मुखादि तथा दमयन्तीके नेत्रके कमलतुल्य होनेसे परस्परमें उनका समान बन्धुत्व होना उचित ही है ] // 14 // तत्कालमासन्दमयी भवन्ती भवत्तरानिर्वचनीयमोहा / सा मुक्तसंसारिदशारसाभ्यां द्विस्वादमुल्लासमभुङ्ग मृष्टम् / / 15 / / तत्कालमिति / तस्मिन् काले तत्कालम् अत्यन्तसंयोगे द्वितीया / आनन्दमयी भवन्ती आनन्दात्मिका सती टिस्वादुभयत्र डीप / तथा च भवत्तरोऽतिशयेन भवन् 1. 'अमुक्त' इति पाठान्तरम् /