________________ सप्तमः सर्गः। 371 समय भी वैसी ही इसे पा रहा हूँ, यह आश्चर्य है / अथवा प्रातःकाल (गौओंको खोलनेके समयमें ) देखा गया स्वप्न प्रायः सत्य होता हैं, ऐसा ज्योतिषशास्त्रका सिद्धान्त है, अतः इस दमयन्तीको जैसा मैंने स्वप्न में देखा, वैसा ही इस समय प्रत्यक्ष में प्राप्त कर रहा हूँ, यह आश्चर्य है / स्वप्नदृष्ट वस्तुको उसी रूपमें जागते हुए भी प्राप्त करनेपर आश्चर्य होना स्वाभाविक ही है / पक्षा०-जो अत्यन्त मधुकर ( मीठा) है, वह ओठ अत्यधिक नमकीन है, यह विरोध होना आश्चर्यजनक है, विरोध का परिहार 'जो अत्यन्त मधुर है, वह अत्यधिक सौन्दर्ययुक्त है, अर्थ करने से होता है ] // 42 // यदि प्रसादीकुरुते सुधांशोरेषा सहस्रांशमपि स्मितस्य / तत्कौमुदीनां कुरुते तमेष निमित्य' देवः सफलं स' जन्म || 43 / / यदीति / एसा भैमी, स्मितस्य निजमन्दहासस्य सहस्रांशं सहस्रतमांशमपि / वृत्तिविषये संख्याशब्दस्य पूरणार्थत्वं त्रिभागवत् / सुधांशोः प्रसादीकुरुते यदि दद्या. च्चेदित्यर्थः / तत्तर्हि स देवः सुधांशुः कौमुदीनां स्वचन्द्रिकाणां जन्म / तमेव स्मितलेशमेव निमित्य स्वकौमुदीषु निक्षिष्य "डुमि प्रक्षेपणे" इति धातोः समासे क्त्वो ल्यबादेशः / सफलं कुरुते / यथा बिन्दुमात्रगङ्गाजलमिश्रणेनान्यजलं भवति तद्दिति भावः / अत्र कौमुदीनां संभावनामात्रेण स्मितांशासम्बधेऽपि तत्सम्बन्धो. क्तेरतिशयोक्तिभेदः // 43 // यदि यह दमयन्ती अपने मुस्कान का हजारवां भाग भी चन्द्रमा को प्रसन्न होकर दे दे तो वह देव अर्थात् चन्द्रमा इस (मुस्कान का सहस्रांश) को (चाँदनीमें) मिलाकर उसके जन्मको सफल करे / [ पाठा०-उस मुस्कान को चाँदनीसे आरतीद्वारा पूजन कर जन्म को अर्थात् चांदनीके या अपने जन्मको सफल करता। एक बूंद गङ्गाजलसे जिस प्रकार बहुत-सी जलराशि पवित्र हो जाती हैं, उसी प्रकार दमयन्तीके सहस्र स्मितको चन्द्रिकामें मिलाकर चन्द्र भी जन्मको सफल करता। इस अर्थको श्री पं० जीवानन्दजीने "सर्वत्र पावनी गङ्गा त्रिपु स्थानेषु दुष्यति / म्लेच्छस्पर्श सुराभाण्डे कूपोदकविमिश्रणे // " वचनके आधारपर असमीचीन बतलाया है ? किन्तु उस तीनों स्थानोंको छोड़कर अन्य जलमें मिलाया हुआ थोड़ा भी गङ्गाजल सब जलको जिस प्रकार पवित्र कर देता है, उसी प्रकार यहां समझना चाहिये] // 43 // चन्द्राधिकैतन्मुख चन्द्रिकाणां दरायतं तत्किरणाद्धनानाम् | पुरः परिस्रस्तपृषद्वितीयं रदावलिद्वन्द्वति बिन्दुवृन्दम् // 44 // चन्द्रेति / तस्य त्तन्द्रस्य किरणादश्मेः चन्द्रकान्ते, घनानां सान्द्राणां तन्मुखस्य .. 1. "निमिच्छय" इति पठित्वा 'अर्थात्कौमुदीभिरेव पूजनं कृत्वा नीराजनं कृत्ये ति ब्याख्यातवन्तो नारायणभट्टाः 'प्रकाश' व्याख्यायाम् / 2. "स्वजन्मा" इति पाठान्तरम् / 3. "पुरःसरत्रस्त" इति पाठान्तरम् /