________________ 392 नैषधमहाकाव्यम् / माभ्यामिति / आभ्यां कुचाभ्यामिमकुम्भयोः श्रीः शोभा सम्पच, आदीयते गृह्यते ताम्यामिभकुम्भाभ्यामनयोः कुचयोः असौ श्रीः कादीयते ? न कापि इत्यर्थः / यत् यस्मात् तो इभकुम्भौ भयेन कुचभीत्या गोपायितमौक्तिको अन्तर्गुप्तमुक्ताफलौ। गोपायतेः कर्मणि क्तः / इमौ कुचकुम्भौ अव्यक्त प्रकाशितं मुक्ताभरणं याभ्यां तो। यथा राज्ञा हृतधनो भयद्धनशेषं गोपायति राजा तु प्रकाशयति तद्वदित्यर्थः / इमकुम्भश्रिय पादानादखण्डितस्वश्रीकत्वाच ताभ्यामप्यधिको कुचकुम्भाविति भावः॥ ये (दमयन्तीके ) दोनों स्तन हाथीके ( मस्तकस्थ ) कुम्भ की शोभा ( पक्षा-सम्पत्ति अर्थात् धन ) ले लेते हैं और वे ( हाथीके कुम्भ ) इन ( दोनों स्तनों) की शोभा (पक्षा०सम्पत्ति ) को कहां लेते हैं ? अर्थात् नहीं लेते; क्योंकि उन हाथी के दोनों कुम्भोंने भयसे (राजरूप दमयन्तीके स्तन पुनः मेरी गज-मुक्तारूप सन्पत्तिको न छीन लें इस भयसे) अपने गजमुक्ताको भीतर छिपा रखा है तथा ये दमयन्तीके दोनों स्तन स्पष्ट दृश्यमान मुक्ताभूषणवाले हैं अर्थात अपने मुक्ताओंको बाहर दिखला रहे हैं / (राजा या बलवान् व्यक्ति प्रजाके धनको बलात्कार से छीन लेते हैं और उन्हें बाहर सबके सामने दिखलाते हैं, छिपाते नहीं; तथा दुर्बल प्रजा या दुर्बल व्यक्ति उस प्रकार धनके छीने जानेपर बचे हुए अपने धनको छिपाकर रखता है, क्योंकि उसे भय रहता हैं कि बचे हुए मेरे इस धनको भी वे फिर न छोन लें / उसी प्रकार नृपरूप दमयन्तीके स्तनद्वय प्रजारूप हाथीसे कुम्भद्यकी शोमा या धनको छीन कर गजमुक्ताभरणको बाहर धारण किये हुए हैं ( पक्षा०-गजकुम्म द्वयसे स्तनद्वय अधिक शोभावाले हैं ] और हाथीके कुम्भद्वयसे शेष बचे हुए गजमुक्ताको भीतर छिपा रखा है / दमयन्ती स्तनद्वय हाथीके कुम्भद्वयसे अधिक सुन्दर है ] // 78 // कराप्रजापच्छतकोटिरर्थी ययोरिमौ तौ तुलयेत् कुचौ चेत् / सर्व तदा श्रीफलमुन्मदिष्णु जातं वटीमप्यधुना न लब्धुम् // 7 // कराग्रेति / कराग्रे हस्तस्याने जाग्रत् प्रकाशमानः शतकोटिः वज्रं तत्सङ्खचं धनं च यस्य स महेन्द्रो ययोः कुचयोः कर्मणोरर्थी ताविमौ महेन्द्राभ्यर्थिती कुचौ कर्म वटी पुद्रकपर्दिकामपि 'वटः कपर्दै न्यग्रोधः' इति विश्वः / अपचयविवक्षायां स्त्री. लिमप्रयोगः। 'स्त्री स्यात्काचिन्मृणाल्यादिविवक्षापचये यदि' इत्यमराभिधानात् / लन्धुं न जातं न शक्तं निःस्वमित्यर्थः / सर्व श्रीफलं बिल्वफलं कर्तृ / 'बिल्वे शाण्डि. स्यशैलूषो मालरश्रीफलावपि' इत्यमरः / तुलयेदात्मनोपचिनुयाच्चेत् तदा उन्मदि शु उन्मादि स्यादित्यर्थः / "अलकृष" इत्यादिना इष्णुच् / उपमातीते वस्तुनि उपमात्वाभिमानः / तथा धनिकैकलभ्ये वस्तुनि निःस्वस्य लिप्सा चोन्माद एवे. स्यर्थः // 79 // जिसकी मुट्ठी में वज्र (पक्षा०-सौ करोड़ = एक अरब धन ) प्रकाशित हो रहा है अर्थात वर्तमान है, वह इन्द्र ( पक्षा०-अरबपति महानिक) जिन (दोनों स्तनों ) का