________________ 400 नैषधमहाकाव्यम् / क्या ? ( अपने स्तम्बको अपना तथा दमयन्तीके ऊरुद्वयको दमयन्तीका ऊरुद्वय नहीं समझती है बया ? ) क्योंकि इन दोनों ( दमयन्तीके ऊरु ) के भ्रमसे अपने ऊपर पत्रोंको (पत्तों की, पक्षा०-प्रतिपक्षीके ऊपर रखने योग्य लिखित पत्रोंको) धारण कर रही है। (प्रति. पक्षीके ऊपर लिखितपत्र रखनेका नियम होनेसे कदलीने चाहा कि प्रतिपक्षी उक्त ऊरुद्वयपर मैं साक्षर पत्र रख दूं , किन्तु ऊरुद्धयके भ्रमसे उसने अपने ही ऊपर पत्रको रख लिया ) / [ केले के खम्वेके ऊपर पत्तेका होना सर्वप्रत्यक्ष है / दूसरा कोई व्यक्ति ढो वस्तुओं के समान आकार होनेसे भ्रममें पड़कर दूसरेमें करने योग्यको अपने में कर लेता है। दमयन्तीके ऊरु कदलीस्तम्भके समान रमणीय है ] // 92 // विधाय मूर्धानमधश्वरचेन्मुन्चेत्तपोभिः स्वमसारभावम् / जाडयच नाश्चेत् कदली बलीयस्तदा यदि स्यादिदमूरुचारुः ||3|| विधायेति / कदली रम्भा तपोभिः तपश्चर्याभिः मूर्धानमधश्वरमधोवर्तिनं विधाय शिरोबुध्न्योरुत्तराधरभाववैपरीत्यञ्च लब्ध्वेत्यर्थः / स्वं स्वकीयमसारभावं निःसा. रत्वञ्च मुञ्चेच्चेत् बलीयो जाड्यमेकान्तशैत्यश्च नाश्चेत् न गच्छेत् / तदानीम्, इदमह. चारुः अस्या उरू इव चारुः शोभना स्याद्यदि स्यादेवेत्यर्थः / अत्र कदल्याः अधःशिरस्वादिधर्मासम्बन्धेऽपि सम्बन्धसम्भावनया सम्बन्धोक्तेरतिशयोक्तिभेद इति सर्वस्वकारः // 93 // यदि कदली मस्तक ( ऊपरी भाग ) को नीचेकी ओर करके तपस्यासे अपनी निःसारताको छोड़ देती तथा अत्यधिक अर्थात् नित्य रहनेवाली जडता (मूर्खता, पक्षा०-शीतलता) को छोड़ देती, तो इस दमयन्तीके ऊरु के समान सुन्दर हो सकती। [दमयन्ती ऊरुद्वय ऊपरमें मोटा तवा नीचेमें क्रमशः पतला है, कोमल होते हुए भी ससार ( बलयुक्त ) है और ग्रीष्ममें शीतल तथा शीतकालमें उष्ण है, किन्तु कदली इसके सर्वदा विपरीत (ऊपरमें पतला तथा नीचेसे मोटी, कोमल तथा निःसार और सब समयमें शीतल ) है, अतः वह सर्वदाके लिए ऊपरका भाग नीचे कर ले, कोमलताका त्यागकर सारयुक्त बन जाय तथा एकान्त शीतलताका त्यागकर दे, तब दमयन्तीके समान हो सकती है। अन्य भी कोई व्यक्ति किसी उत्तम व्यक्तिको समानता पाने के लिये तपस्याके द्वारा मस्तक नीचाकर अपनी असारता तथा जडताका त्यागकर उसकी समानता पाता है। दमयन्तीका ऊरुद्वय अनु. पम है // 93 / / ऊरुप्रकाण्डद्वितयेन तस्याः करः पराजीयत वारणीयः ! युक्त हिया कुण्डलनच्छलेन गोपायति स्वं मुखपुष्करं सः || 14 // अर्विति / तस्याः दमयन्त्याः ऊरुप्रकाण्डयोः ऊहश्रेष्ठयोः उरुस्तम्भयो, द्वितयेन वारणीयो वारणसम्बन्धी करो हस्तः पराजीयत पराजितः, स करः हिया स्वं मुखं मुखभूतं पुष्करमधे वक्त्रं पङ्कजा 'मुखं निःसरणे वक्त्रप्रारम्भोपाययोरपि / पुष्करं पङ्कजे