________________ सप्तमः सर्गः। 365 नही रखते तो इस समय अर्थात् युवावस्थामें अनुपम अङ्गकान्तिवाली इस दमन्यतीके दोनों स्तनोंको किस ( सुन्दर सामग्री ) से बनाते / ( अथवा-ब्रह्मा कटिको पतली करके इस ( कटि ) के सुन्दर मागको ............ ) / [जिस प्रकार कोई शिल्पी किसी वस्तुको बनाते समय भविष्यमें बननेवाला वस्तु के लिये उसकी कुछ सुन्दर सामग्रियोंको सुरक्षित रखकर बादमें उन्हीं सुरक्षित सामग्रियोंसे दूसरी वस्तुको भी वैसी ही सुन्दर बनाता है, उसी प्रकार ब्रह्माने भी कटिको बनाते समय बनायी हुई सुन्दर सामग्रीसे इसके स्तनोंको बनाया है / यदि वह सम्पूर्ण सामग्रीको कटि भागके बनाने में ही व्यय कर देते तो पुनः दमयन्तीकी युवावस्था आनेपर अनुपम कान्तिवाली दमयन्तीके स्तनोंको बनानेके लिये संसार में सुन्दर सामग्री नहीं मिलनेसे उन्हें ऐसा सुन्दर नहीं बना सकते ' दमयन्तीकी कटि पतली ए सुन्दर है तथा स्तन भी बैसे ही सुन्दर हैं ] !! 82 // गौरीव पत्या सुभगा कदाचित् कीयमप्यतनूसमस्याम् / इतीव मध्ये निदधे विधाता रोमावलीमेचकसूत्रमस्याः // 23 // गौरीति / सुभगा भर्तृवल्लभा इयं दमयन्ती कदाचित् गौरीव पत्या भी सह अर्धतनूसमस्याम्, अर्धाङ्गसना की करिष्यतीति मवेति शेषः। विधाता अस्या मध्ये अर्धाङ्गमध्ये रोमावलीमेव मेचकसूत्रसीमानिर्णयार्थ नीलसूत्रं निदष इव निहितवात् किमित्युत्प्रेक्षा // 83 // __ सौभाग्यवती या सुन्दरी यह दमयन्ती पार्वतीके समान किसी समय (विवाह होनेपर ) पतिके साथ आधे शरीरको सङ्घटित करेगी, मानो इसी वास्ते ब्रह्माने इस दमयन्तीके ( शरीर के ) बीच में रोमावलीरूप नील एबं चमकदार सूत्र ( के चिह्न ) को रख दिया है / [ जैसे कोई शिल्पी काष्ठ आदिको बीचमें काले सूत्रसे चिह्नितकर विभाग कर देता है, वैसे ही ब्रह्माने दमयन्तीके शरीरके मध्यमे रोमावलि रूप काले सूतका चिह्न कर दिया है कि विवाह होनेपर यह दमयन्ती भी पार्वतीके समान पतिकी अर्धाङ्गिनी बनेगी ] // 83 // रोमावलीरज्जुमरोजकुम्भौ गम्भीरमासाद्य च नाभिकूपम् | मदृष्टितृष्णा विरमद्यदि स्यान्नैषां बतैषा सिच येन गुप्तिः / / 84 // रोमावलीति / मदृष्टेस्तृष्णा पिपासाऽपि रोमावलीमेव रज्जु सरोजावेव कुम्भी तथा गम्भीरं नाभिमेव कूपञ्चासाद्य लब्ध्वा तदा विरमेत् शाम्येत् / अमीभिरुपायैः लावण्यामृतमुत्य सुष्ठ पीत्वेत्यर्थः। एषां साधनानामेषा सिचयेन वस्त्रेण 'वस्त्र. न्तु सिचयः पटः' इति हलायुधः / गुप्तिश्छादनं न स्याद्यदि / बतेति खेदे / रूपका. लङ्कारः // 84 // __ मेरी दर्शनपिपासा ( दमयन्तीके ) रोमावलीरूप रस्सीको, स्तनरूपी घड़ोंको तथा नामि रूपी गम्भीर कूएको प्राप्तकर विरत अर्थात् पूर्ण हो जाती, यदि ये रोमावली आदि कपड़ेसे (पक्षा०-खड्गधारी पहरेदार पुरुषोंसे) गुप्त (ढके हुए, पक्षा०-सुरक्षित) नहीं होते। [ जिसे