________________ 272 नैषधमहाकाव्यम् / चन्द्राधिकरवाचन्द्रिकाणामपि ततोऽधिकमिति भावः / अत एवाह-चन्द्राधिक स्यैतन्मुखस्य चन्द्रिकाणां सम्बन्धि दरायतमीषदीर्घ पुरः परिनस्तानि प्रथमतानि पृषन्ति बिन्दवो यस्य तद्वितीयं बिन्दुवृन्द रदावलिद्वन्द्वति तदिव भाचरति "सर्वप्रातिपदिकेभ्यः किप्" इत्याचारशिवन्तालट् / प्रथमनिस्सृता बिन्दुपक्रिधर• दन्तपक्तिः उत्तरानन्तरजातेत्युप्रेता // 44 // चन्द्रमाकी किरणोंसे सघन अर्थात् अधिक इस दमयन्तीके मुखकी चांदनी का कुछ अधिक एवं पहले गिरी हुई यूँदोंका दूसरा बूंदोंका समुदाय दोनों (ऊपर तथा नीचेवाले ) ओरके दन्तसमूहके समान हो रहे हैं / [दमयन्तीका मुख चन्द्रमाकी अपेक्षा अधिक सुन्दर है, अतः उसकी चांदनी (प्रकाश-शोभा) भी चन्द्रमाकी चांदनीकी अपेक्षा सघन अर्थात् अधिक हैं ( अथवा-चन्द्रमाकी अपेक्षा अधिक सुन्दर दमयन्ती-मुख-चन्द्रकी चन्द्रिका ही मेघरूप है ), उक्त चांदनीसे ( अथवा-चांदनीरूप मेघसे ) पहले जो बिन्दुसमूह गिरे जो छोटे-छोटे थे वे तो दमयन्तीके नीचेवाले दांत हुए तथा पहले गिरे हुए बिन्दुसमूहसे कुछ बड़े-बड़े जो बिन्दुसमूह गिरे, वे दमयन्तीके ऊपर वाले दांत हुए / दमयन्तीके नीचेवाले दांत छोटे-छोटे तथा ऊपरबाले उनसे कुछ बड़े बड़े हैं, जो सामुद्रिक शास्त्रके अनुसार शुभसूचक है] // 44 // सेयं ममैतद्विरहातिमूर्छातमीविभातस्य विभाति सन्ध्या / महेन्द्रकाष्ठागतरागकी द्विजैरमीभिः समुपास्यमाना // 45 // सेति / महेन्द्रस्य काष्ठामुत्कर्ष गतोऽनुरागः / अन्यत्र पूर्वदिग्गतो रागो लौहित्यम् / 'काष्ठोत्कर्षे स्थिती दिशि' इत्यमरः / 'रागोऽनुरागे लौहित्ये' इति विश्वः / तस्य की जनयित्री अमीभिर्द्विजदन्तैः विप्रैश्च / दन्तविप्राण्डजा द्विजाः' इत्यमरः / समुपास्यमाना सेव्यमाना सेयं दमयन्ती मम एतस्या मैग्या, विरहाा वियोग पीडया या मूर्छा सैव तमी रजनी। 'रजनीयामिनी तमी' इत्यमरः / तस्या विभा. तस्य संबन्धिनी सन्ध्या प्रात:सन्ध्या विभाति / सन्ध्याधर्मसम्बन्धात्सन्ध्या खमु. प्रेक्ष्यते // 45 // इन्द्रके अनुरागको बढ़ानेवाली ( पक्षा०-इन्द्रदिशा अर्थात् पूर्वदिशामें लालिमाको करने वाली ) तथा इन दांतों ( पक्षा०-ब्राह्मणों ) से पूजित होती हुई यह दमयन्ती, इस दमयन्तीके विरहजन्य पीड़ासे उत्पन्न मेरी मूर्छारूपी रात्रिके प्रातःकाल की सन्ध्या ( रूपमें ) शोभमान हो रही हैं / [ जिस प्रकार प्रातःकालकी सन्ध्या पूर्व दिशाको लालिमा युक्त करनेवाली तथा रात्रिका नाश करनेवाली होती है, एवं ब्राह्मण लोग सन्ध्योपासनादिसे उसकी सेवा करते हैं; उसी प्रकार यह दमयन्ती भी इन्द्रके अनुरागको उत्पन्न करनेवाली है, दांतों से पूजित (शोभित) है और इसके विरहसे होनेवाली पीड़ाजन्य मेरी मूछारूपिणी रात्रिका नाश करनेवाली सन्ध्यारूप है अर्थात् प्रातःकालकी सन्ध्या जैसे रात्रिका नाश करती है, वैसे ही अब दमयन्ती-विरहजन्य पोडासे उत्पन्न मैरी मूच्छाका भी नाश हो जायेगा // 45 //