________________ 355 सप्तमः सर्गः। अस्या यदष्टादश संविभज्य विद्या श्रुती दधतुरर्धमर्धम् / कर्णान्तरुत्कीर्णगभीरलेखः किं तस्य संख्यैव न वा नवाङ्कः // 63 // अस्या इति / अस्याः श्रुती कौँ अष्टादश विद्याः वेदवेदाङ्गादिकानि वेद्यस्थानानि संविभज्य विधाकृत्य यदर्धमधं दध्रतुः बिभ्रतुः / कर्णस्यान्तर्गर्भ उत्कीर्ण उत्पा. दितः गभीरो दूरगतो लेखोऽवयवविन्यासः तस्याधस्य सङ्ख्यैव मूर्ता नवसङ्ख्यैव न किम् / यद्वा नवानामको नवाको बालसख्याचिह्न वा न भवति किम् / भवस्येवेत्यर्थः। उत्प्रेक्षा // 6 // इस दमयन्तीके दोनों कानोंने अठारह (विद्याओं ) को दो भागों में बांटकर आधा 2 धारण किया अर्थात् नव 2 विद्याओंको प्रत्येक कानने ग्रहण किया; कानने भीतर लिखे गये गम्भीर ( दृढ़तम-अमिट ) लेखवाला उस ( अठारह विद्याओंके आधे भाग) का नव अङ्कको संख्या ( अथवा-आश्चर्यजनक नया चिह्न रूप संख्या) ही नहीं है क्या ? / [ चार वेद (ऋक्, साम, यजुः और अथर्व), छः वेदाङ्ग (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुत, ज्योतिष और छन्द), मीमांसा, न्याय, आयुर्वेद, धनुर्वेद, गन्धर्वविद्या, अर्थशास्त्र, पुराण और धर्मशास्त्र-ये अठारह विद्याएं हैं / दमयन्तीके दोनों कानोंने उस अठारह विद्याओंको दो भागों में बाँट कर नव-नव विद्याओंको प्रत्येक ने ग्रहण किया, वही नव की संख्या ब्रह्माने इसके कानोंके भीतरमें लिख दी है। अन्य भी कोई शिल्पी किसी वातको चिरस्थायी रहने के लिये शिला आदि पर उसे गम्भीर ( अमिट या चिरस्थायी) व में अस्ति कर देता (लिखा देता) है / दमयन्तीके कानोंमें नव नव संख्याके समान रेखा है, जो सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार शुभसूचक लक्षण है / ] // 63 // मन्येऽमुना कर्णलतामयेन पाशद्वयेन च्छिदुरेतरेण / एकाकिपाशं वरुणं विजिग्येऽनङ्गीकृताऽऽयासतती रतीशः / / 64 // मन्य इति / रतीशो रतिपतिः अमुना कर्णलतामयेन कर्णपाशरूपेण च्छिदुरा. दितरेण च्छिदुरेतरेणाभकुरेण / “विदिभिदिच्छिदेः कुरच्" इति कर्मकर्तरि कुरच / पाशद्वयेन पाशायुधयुग्मेन / 'पाशो बन्धनशस्त्रयोः' इत्यमरः / एकाकी अद्वितीयः पाशो यस्य तमेकाकिपाशम् / वरुणमनङ्गीकृता परिहृता, आयासततिः प्रयासपर. म्परा येन सोऽनायासः सन् विजिग्ये जिगाय / मन्य इत्युत्प्रेहायाम् / “विपराभ्यां जे." इत्यात्मनेपदम् / अधिकसाधनेनाल्पसाधनः मुजय इति भावः // 64 // कामदेवने ( दमयन्तीके ) कर्णलतारूप इन दो दृढ़ पाशों ( पाश नामक शस्त्रों ) से एक पाशवाले वरुणको अनायास ही जीत लिया है, ऐसा मैं मानता हूँ। [ कामदेवने दमयन्तीके कर्णपाशद्वयको अपना अस्त्र बनाकर एक पाशवाले वरुणको जीत लिया है। अतः 'वरुण कामुक होकर दमयन्तीको पानेकी आशासे उसके स्वयम्बरमें आयेगा, इस भविष्य