________________ षष्ठः सर्गः। दिक्पालोंका सन्देश जवतक थोड़ा ही कह पाये थे कि 'यह शब्द कहांसे हो रहा है ? कोई दृष्टिगोचर नहीं होता। अतः डरी हुई कन्याओंने जब कोलाहल किया तब नल सावधान होकर चुप हो गये ] // 17 // पश्यन् स तस्मिन्मरुतापि तन्त्र्याः स्तनौ परिस्प्रष्टुमिवास्तवस्त्रो। अक्षान्तपक्षान्तमृगामास्यं दधार तिर्यग्वलितं विलक्षः // 18 / / पश्यन्निति / स नलः तस्मिन्नन्तःपुरे मरुतापि अचेतनेनापीति भावः। परि. स्प्रष्टुं संस्प्रष्टुमिव / अस्तवस्त्री अपनीतांशुको तन्न्याः स्तनी पश्यन् विलक्षो विल. जितस्सन् , अक्षान्तपक्षान्तमृगाइँ, अक्षान्तः असोढः पक्षान्ते पौर्णमास्यां मृगाङ्क: चन्द्रो पन तदास्यं; तिर्यग्वलितं साचीकृतम् / दधार धृतवान् / यत्राचेतनस्य वायोरपि चपलता तत्रायं निर्विकार एवेत्यहो जितेन्द्रियत्वमस्येति भावः // 18 // उस अन्तःपुरमें अचेतन वायु ( पक्षान्तरमें-'वायु' देव) से भी कृशाङ्गीके स्तनों को स्पर्श ( या नर्दन ) करने के लिए वस्त्रशून्य ( उघारे-नग्न ) किये गये स्तनोंको देखते हुए ( उत्तम नायक होनेसे परस्त्रीका स्तन देखना अनुचित होनेसे ) लजित या उदासीन होकर पूर्णचन्द्रको नहीं सहन करनेवाला ( नलका) मुख तिर्यक् भावको धारण कर लिया अर्थात् दूसरी ओर मुड़ गया। [नलका मुख पूर्णचन्द्र रूप है, तथा पूर्णचन्द्रके सामने अर्थात् चाँदनी ( उजेले ) में प्रच्छन्न कामुकका किसी स्त्रीके साथ स्तनमर्दनरूप संभोग करना असम्भव होनेसे वहांसे चन्द्ररूप मुखको हट जाना ही उचित है ] // 18 // अन्तःपुरे विस्तृतवागुरोऽपि बालावलोनां वालतेगणोपः। न कालसारं हरिणं तदक्षिद्वन्द्वं प्रभुबन्धुमभून्मनोभूः // 16 // अन्तरिति / अन्तःपुरे बालावलीनां स्त्रीसमूहानां, वबयोरभेदादोमसमूहानां च, वलितैः पुनः पुनः प्रवृत्तैः आवर्तितैश्च गुणानां कटाक्षविक्षेपादीनां सूत्राणां चौघेः विस्तृतवागुरः प्रसारितमृगवन्धनीकोऽपि / 'वागुरा मृगबन्धनी' इत्यमरः / मनोभूः स एव मृगयुरिति शेषः / तस्य नलस्यातिद्वन्द्वमेव कालसारम्, कृष्णसारम्, अक्षिद्वयन्तु कालेन कनीनिकाकाष्ण्येन सारं श्रेष्ठं, हरिणञ्च बन्धुमाक्रष्टं संयन्तुं च प्रभुः शक्तो नाभूत् / जितेन्द्रियत्वादस्येति भावः / अत्राच्यादिषु हरिणस्वादिरूपणान्मनोभुवो मृगयुत्वं गम्यत इत्येकदेशवर्तिरूपकम् // 19 // अन्तःपुरमें अपने बालाओं के समूहोंका नृत्यकर्मादि या अङ्गतोडना आदि गुण समूहोंसे ( पक्षा०-बाल-समूहोंके बटी हुई रस्सियोंसे ) जालको फैलाया हुआ भी कामदेव (रूपी व्याध ) काली कनीनिका ( आंखकी पुतली ) ही सारभूत है, जिसमें ऐसे श्वेतवर्ण, नलके दोनों नेत्रोंको ( पक्षान्तरमें-कालसारनामक ) दोनों हरिणोंको बांधने ( फँसाने ) में समर्थ नहीं हुआ। [बालोंकी बटी हुई रस्सियोंके जालको जंगलमें भी फैलानेवाला व्याध मृगोंको फँसा लेता है, और नगर या एक मकान में मृगोंको फंसाना तो अत्यन्त सरल है, किन्तु