________________ 310 नैषधमहाकाव्यम् / मन्यन्त एव / मन्यकर्मण्यनादरे चतुर्ष्या वैभाषिकत्वात् द्वितीया / प्राणानपि तृणी. कृत्य तदा तत्सङ्गमलालसानां तासां तस्माइयं कुत इति भावः // 32 // उन ( नल) के प्रतिबिम्बकी सुन्दरतासे उत्पन्न मोहसे चञ्चल या सतृष्ण ( उनको प्राप्त करनेकी इच्छा करनेवाली ) वे सुनयनाएँ उस अदृश्य नलसे भी अधिक नहीं डरी, और कामदेवकी आशाके वशीभूत ( कामपीड़ित ) उन स्त्रियोंने अपने प्राणोंको भी तृण समझा। [शृङ्गार तथा भयानक रस में परस्पर विरोध होने से उन स्त्रियों से कामवासना के कारण शृङ्गार रसका आविर्भाव होनेपर भयानक रसका न होना स्वाभाविक ही है, तथा जो अपने प्राणोंको भी तृण समझता है, उसको भय न होना उचित ही है। काम-पीड़ित होकर सब स्त्रियां अदृश्य नलको भी प्राण-पण से चाहने लगी ] // 32 // जागांत तच्छायरशां पुरा यः स्पृष्ट च तस्मिन्विससर्प कम्पः / द्रुतं गते तत्पदशन्दभीत्या स्वहस्तितश्चारुहशां परं सः / / 33 // जागर्तीति / पुरा पूर्व, तच्छायहां तप्रतिबिम्बदर्शिनीनां चारुशां, किप। यः कम्पो जागर्ति स्फुरति / ततस्तस्मिन् स्पृष्टे च सति विससर्प प्रससार / स कम्पः द्वतं शीघ्रं गते अपगते सति तस्य पदशब्दानीत्या का परं स्वहस्तवान् कृतः दत्त. स्वहस्तः, प्रबलीकृत इत्यर्थः, स्वहस्तशब्दान्मत्वन्तात् “तत्करोति" इति णिचि णाविष्टबद्भावे विण्मतोलक / ततः कर्मणि कः // 33 // उन ( नल ) की छाया को देखनेवाली सुलोचनाओं का जो कम्प पहले उत्पन्न हुआ, वह कम्प उस ( नल ) का स्पर्श करनेपर बढ़ गया (दर्शनसे कम्परूप सात्त्विक भाव का कम तथा स्पर्श से अधिक होना उचित ही है। ) किन्तु परस्त्री-दर्शनजन्य पाप न होनेके लिये वहाँसे नलसे शीघ्र हटनेपर उनके पैरों की ध्वनि से उत्पन्न भयसे सहारा दिये गये के समान वह कम्प अत्यन्त बढ़ गया। [प्रथम दोनो अवस्थाओं में उत्तरोत्तर बढ़नेवाला कम्प शृङ्गाररस में उत्पन्न था, पुनः तृतीयावस्थामें होनेवाले अत्यन्त अधिक कम्प भयानक रससे उत्पन्न था] // 33 // उल्लास्यतां स्पृष्टनलाङ्गमङ्गं तासां नलच्छार्यापवाऽपि दृष्टिः / अश्मैव रत्यास्तदनति पत्या छेदेऽप्यबोधं यदहर्षि लोम // 34 // उल्लास्येति / रत्याः पत्या कामेन स्पृष्टं नलाङ्गं येन तत्तासामामुल्लास्यतामुल्लासं प्राप्यताम् / उल्लासयतेः कर्मणि लोट / नलच्छायस्य नलप्रतिबिम्बस्य पिबा, तहर्शिनीत्यर्थः / 'पाघ्रा' इत्यादिना शप्रत्ययः, पिबादेशश्च / तासां दृष्टिरपि उल्लास्यताम्, तयोश्चेतनत्वादिति भावः / छेदे कर्तनेऽप्यबोधं बोधरहितम्, अचेतनं लोम, अहर्षि हर्षितमिति यत् / हृषेय॑न्ताकर्मणि लुङ्। तदश्मैव पाषाण एव, अनर्ति अश्मनर्तनप्रायं रोमहर्षणं कुर्वाणस्य कामस्य किमसाध्यमिति भावः / अत्र रोमहर्षणाश्मनर्तनवाक्यार्थयोर्यत्तच्छब्दावगतसामानाधिकरण्यानुपपत्या साहश्याक्षेपाद्वाक्या. थवृत्तिनिदर्शनालकारः। लक्षणं तूकम् // 34 //