________________ सप्तमः मर्ग:। 563 कर्पूरमस्त्रियाम् / घनसार' इति चामरः / आपे प्राप्तः / आप्नोतेः कर्मणि लिट् / यद्यस्मात्, निजामप्लोषदशामपेक्ष्य अदाहावस्थात इत्यर्थः / संप्रत्यनेन मनोभूचापेन अधिकवीर्यता अधिकपराक्रमोऽपि अर्जि प्रापि। कर्मणि लुक्छ / 'वीय परोक्रमे रेतसि' इति वैजयन्ती दग्धस्यापि स्मरचापस्य तद्भभूतस्य पूर्वाभ्यधिकपराक्रमदर्शनान्नूनं घनसारभावः प्राप्त इत्युप्रेक्षा // 25 // ___ प्रिया दमयन्तीके भ्रूद्वय बनते हुए काम-धनुषने धनुषमें दृढ़सारता (पक्षा०-कर्पूरभाव) को प्राप्त कर लिया, क्योंकि अपने नहीं जलनेके भावको देखकर इस समय (जलनेपर ) अतिशय पराक्रमको प्राप्त किया। [ कामचाप जलनेके पहलेकी अपेक्षा इस समय अर्थात् जलनेके बाद केशरमात्रावशिष्ट एवं खण्डित होने के बाद दमयन्तीका भ्रयुग बनकर जगविजयी होनेसे अधिक वीर्यशाली हो गया हैं / [ कर्पूर भी जलनेसे पहलेकी अपेक्षा जलने के बादमें अधिक शीतकर एवं सुगन्धियुक्त होता है / ] // 25 // स्मारं धनुर्यद्विधुनोज्ज्ञितास्या यास्येन भूतेन च लक्ष्मरेखा। एतद् भ्रवौ जन्म तदाप युग्मं लीलाचलत्वोचितबालभावम् / / 26 / / स्मारमिति / यत्स्मस्येदं स्मारं धनुः / अस्या भैम्या आस्येन भूतेन आस्यभावं गतेन विधुना चन्द्रेणोज्झिता, या लक्ष्मरेखा कलङ्करेखा च तयुग्मं तदुभयं कर्तृ। लीलाचलस्वयोर्विलापचञ्चलत्वयोरुचितो योग्यो बालभावः केशत्वं बवयोरभेदामिक्षशुस्वं च यस्मिन् जन्मनि तत्तथोक्तम् / एतस्या भैम्या ध्रुवौ जन्यभ्ररूपेणोत्पत्तिमाप। एतस्या मुखमकलङ्कचन्द्रः ध्रुवौ च स्मरधनुश्चन्द्रलक्ष्मणोरपरावतार इत्युत्प्रेक्षा // 26 // जो कामदेवका धनुष है यह तथा इस दमयन्तीका मुख बने हुए चन्द्रमाके द्वारा छोड़ा गया कलङ्क- इन दोनोंने विलाससे चञ्चलताके ( अथवा-विलास और चञ्चलताके ) योग्य केशभाववाले ( पक्षा०-बचपनवाले ) जन्मको प्राप्त किया है / ( एक तो मदन-दाहमें दग्ध उसका धनुष, तथा दूसरा दमयन्तीका मुख बनने के लिए चन्द्रमाने जो अपनी कलङ्करेखा छोड़ दी वह-इन दोनोंने ही दमयन्तीके दो भ्र रूपमें जन्म लिया है, जिस जन्ममें (भ्रूपक्षमें ) बिलास एवं चञ्चलतायुक्त केश हैं तथा ( जन्म पक्षमें ) बिलास एवं चञ्चलतायुक्त बचपन है / दमयन्तीका भ्रदय दग्ध काम-धनुष तथा चन्द्रकलङ्कके समान कृष्णवर्ण, विलासयुक्त एवं कामोत्पादक है ] // 26 // इपुत्र येणैव जगत्त्रयस्य विनिर्जयात्पुष्पमयाशुगेन / शेषा द्विवाणी सफलीक्रतेयं प्रियादगम्भोजपदेऽभिषिच्य / / 20 / / इष्विति / पुष्पमायाशुगेन कामेन का इपुत्रयेण करणेन जगत्त्रयस्य उभयप्राप्ती कर्मणीति, षष्ठी / विनिर्जयात् शेषा शिष्टा विष्वन्यस्मिन्नपयुक्त' इति वैजयन्त्यां शेषशब्दस्य विशेष्यलिङ्गता। इयं द्विवाणी बाणद्वयं समाहारे द्विगोर्डीप् / इयमिति हस्तनिर्देशः प्रियाया दृशोरेवाम्भोजयोः पदे स्थाने अभिषिच्य सफलीकृतेत्युत्-प्रेक्षा कुसुमबाणपरिणतिरेवास्थाष्टिषष्टिरन्ययमेतत्सकलयुवलोकयोभकत्वमिति भावः //