________________ 362 नैषधमहाकाव्यम् / भी श्रेष्ठ व्यक्तिके साथ स्पर्धा करनेवाले अधम व्यक्ति को अर्द्धचन्द्र देकर (गर्दनमें हाथ डालकर ) बहिष्कृत कर देते हैं तथा श्रेष्ठ व्यक्ति की पुष्पादिसे पूजा (आदर-सत्कार ) करते हैं / दमयन्तीका केश-समूह मोरके पंखोंसे भी अत्यधिक सुन्दर था ] // 22 // केशान्धकारादथ हश्यफालस्थलाधचन्द्रास्फुटमष्टमीयम् / एतां यदासाद्य जगज्जयाय मनोभुवा सिद्धिरसाधि साधु // 23 // केशेति / केशः केशपाश एवान्धकारस्तस्मात् अथानन्तरं दृश्यो दर्शनार्हः फाल. स्थलं ललाटभाग एवार्धचन्द्रो यस्यास्सा इयं दमयन्ती अष्टमी / तत्राप्यन्धकारानन्तरहश्यार्धचन्द्रत्वात्कृष्णाष्टमी शुक्लपक्षे विपर्ययात्स्फुटमित्युत्प्रेक्षायाम् / कुतः? यस्मान्मनोभुवा जगजयाय एतामासाद्य साधु सिद्धिः जगजयसिद्धिः असाधि साधिता / कृष्णाष्टम्यां जैत्रयात्रायां जयसिद्धिरिति ज्योतिर्विदः। यथाह पितामहः"जयदा विजिगीषूणां यात्रायामसिताष्टमी। श्रवणेनाथ रोहिण्या जययोगो युता यदि // " इति // 23 // __केशरूपी अन्धकारके बाद (अथवा-नोचेके भागमें) सुन्दर दिखलायी पड़ते हुए ललाटरूपी चन्द्रमावाली यह दमयन्ती मानो (कृष्णपक्ष की ) अष्टमी है (क्योंकि कृष्णपक्षमें ही अन्धकार के बाद चन्द्र दृष्टिगोचर होता है, यहाँ केशरूप अन्धकारके बाद ललाट रूप चन्द्र दृष्टिगोचर हुआ है, अतः दमयन्ती कृष्णपक्षकी अष्टमी ही है ) क्योंकि इसे ( दमयन्ती को, पक्षा०-अष्टमी तिथिको ) प्राप्तकर कामदेवने संसारको जीतनेके लिये सम्यक् प्रकारसे सिद्धि को साधा / [अन्य भी व्यक्ति कृष्णपक्षकी अष्टमी तिथि में मन्त्र-तन्त्रादि को सिद्ध करते हैं। पुष्पं धनुः किं मदनस्य दाहे श्यामीभवत्केसरमेषमासीत् / व्यधाद्विधेशस्तदपि कंधा किं भैमीभ्रवी येन विधिय॑धत्त // 24 // पुष्पमिति / मदनस्य दाहे दाहकाले, पुष्पमेव धनुः श्यामीभवन्तः केसराः किअल्का एव शेषो यस्य तदासीत् किम् / किञ्च ईशोहरतदपि ऋधा कोधेन द्विधा भ्यधात् द्वेधा ज्यभजत् किम् / येन द्विधा विभक्तेन पुष्पेण विधिर्वेधाः भैम्या प्रवी व्यवत्त असृजदित्युत्प्रेक्षा // 24 // ___पुष्पधन्धा ( कामदेव ) के दाहमें पुष्पके धनुष का भी (दाहके कारण) काला पुष्पपरागमात्र शेष रह गया, उसे भी शङ्करजीने क्रोधसे दो टुकड़ा कर दिया क्या ? (कृष्णवर्ण परागमात्रावशिष्ट एवं द्विधा खण्डित ) जिससे ब्रह्माने दमयन्तीके दोनों भौंहोंको बनाया / / [ दमयन्तीकी भौहें कृष्णवर्ण तथा कामचापके तुल्य जगन्मोहक है ] // 24 // भ्रूभ्यां प्रियाया भवता मनोभूचापेन चापे धनसारभावः / निजां यदप्लोषदशामपेक्ष्य संप्रत्यनेनाधिकवीर्यतार्जि / / 25 / / अभ्यामिति / किन प्रियायां भैम्या:भ्रभ्यां भवताभ्रयुगत्वेन परिणमता मनो. भुवनापेन धनसारमा छस्थिरांशत्वं कर्परत्वं च / 'सोरो वले स्थिरांशे च / अथ