________________ 344 नैषधमहाकाव्यम् / परम्परायाः स्रोतसि प्रवाहे वा / 'बुद्धिः कर्मानुसारिणीति वचनात् , ईश्वरे वा। एष एव कारयिते'ति श्रतः। आयत्तधीः / न तु स्वाधीनबुद्धिरित्यर्थः / निरीश्वरसेश्वरमतभेदात् पक्षद्वयोक्तिः, तत्तस्मात् , ईदृशः परतन्त्रः एष जनः, पर्यनुयुज्योपालभ्य / किं कार्यः कारयितुं शक्यः / कारयतेरचो यत् / अतः स्वयमपि दवपरतन्त्रा न पर्यनुयोज्येति भावः // 102 // - "हे मान्य सखियां ! यह जन ( मैं या संसार ) अनादिसे चलती हुई अपने या जीवमात्र के समूहके ( 'अनादिधारि-' पाठा०-'अनादिको धारण करनेवाला अर्थात् आदि रहित, 'अनादिधाविश्वपर-' पाठा०-' अनादिधारी संसार-समूहके ) शुभाशुभ कर्नरूप हेतुभूत परम्पराके प्रवाहमें या ईश्वरमें अधीन बुद्धिवाला है अर्थात् मैं या ससार-कोई भी स्वतन्त्र बुद्धिवाले नहीं है, किन्तु कर्मानुसार या ईश्वरेच्छानुसार बुद्धिवाले हैं / इस कारण ऐसे जन ( मुझसे या संसारसे ) क्या कोई आक्षेप या कोई प्रश्न करना उचित है ? अर्थात् कदापि नहीं। [ मैं या संसार कर्मानुसार अथवा ईश्वरेच्छानुसार ही सब कुछ करते हैं, स्वतन्त्र-बुद्धिसे कुछ नहीं करते, अथवा-अनादिसे चलनेवाले अनेक कल्पोंमें मेरा तथा नलका दाम्पत्यभाब चला आ रहा है, तदनुसार ही मैं नलको वरण करना चाहती हूँ, स्वतन्त्र बुद्धिसे नहीं / अतः तुम लोगोंकी 'तुम नलको क्यों वरण करती हो ? इन्द्रको क्यों नहीं वरण करती. इत्यादि प्रश्न या आक्षेप करना उचित नहीं है / तुमलोग मेरे विषयमें कुछ मत बोलो, सभी चुप रहो ] // 102 // नित्यं नियत्या परवत्यशेषे कः संविदानोऽप्यनुयोगयोग्यः / अचेतना सा च न वाचमर्हद्वक्ता तु वक्त्रश्रमकर्म भरते // 103 / / ननु देवपारतन्त्र्येऽपि मा मढः पर्यनुयोज्यः / विद्वांस्तु पर्यनुयोज्य एवेत्याशङ् क्य आह-नित्यमिति / अशेषे जने नित्यं सर्वदा नियत्या देवेन परवति परतन्त्रे सति संविदानो विद्वानपि / “समो गम्यच्छि” इत्यादिना विदेरात्मनेपदम् / कः अनुयोगयोग्यः उपालम्भाहः / विदुषापि नियतेरलध्यत्वादिति भावः / तहिं निय. तिरेव पर्यनुयुज्यताम्, तत्राह-अचेतना सा नियतिश्च वाचं पर्यनुयोगन्नाहेत् / अचेतनोपालम्भस्यारण्यरुदितकल्पत्वादिति भावः / तथाप्युपालम्भे दोषमाह-वक्ता अचेतनोपालब्धा तु वक्त्रस्य श्रमः श्रान्तिरेव, क्रियत इति कम वाग्व्यापारफलं तद् भुङ्क्ते / वाग्विग्लापनादन्यत्फलं न किञ्चिदस्तीत्यर्थः // 103 // ___सम्पूर्ण संसारके भाग्याधीन रहनेपर कौन व्यक्ति प्रश्न या आक्षेपके योग्य है ( 'ऐसा क्यों करते हो ?' इत्यादि प्रश्न या आक्षेप किसीसे नहीं करना चाहिये ) / अचेतन ( जड़ भाग्य भी आक्षेप या प्रश्नके योग्य नहीं ( क्योंकि अचेतनको कुछ कहनेसे ) कहनेवाला व्यक्ति मुख-श्रमरूप कर्मको भोगता है (कहनेवालेका मुख दुखता है, उसका फल कुछ नहीं होता है ) / अतः तुमलोग मेरे विषयमें कुछ मत कहो, क्योंकि तुमलोगोंका कहना निष्फल होगा // 103 //