________________ 346 नैषधमहाकाव्यम् / त्रिवर्गका ही सेवन करता है, उसी प्रकार मैं भी इन्द्रको छोड़कर नलको ही चाहती हूं, इसमें केवल रुचि ही मुख्य कारण हैं, अतः तुम लोगोंको कुछ भी कहना नहीं चाहिये] // 105 // आकीटमाकैटभरि तुल्यः स्वाभीष्टलामात् कृतकृत्यभावः / भिमस्पृहाणां प्रति चार्थमर्थ द्विष्टत्वमिष्टत्वमपव्यवस्थम / / 106 / / ननु महेन्द्रं प्राप्य कृतकृत्या भव, किं नलप्रार्थनया, दुःखायसेऽत आहभाकीटमिति / आकीटं कीटादारभ्य, आकैटभवैरि तत्पर्यन्तम् / उभयत्राप्यभिवि. धावस्ययीभावः / स्वाभीष्टलाभात् कृतकृत्यभावः, कृतार्थस्वाभिमानस्तुल्यः साधा. रणः। ममाप्यभीष्टलाभात् कृतकृत्यता नेन्द्रलाभादित्यर्थः / तीन्द्र एवेष्यतामित्यत आह-भिन्नस्पृहाणां भिन्नरुचीनां जनानामर्थमर्थ प्रत्यर्थम् / द्विष्टत्वमिष्टत्वञ्च द्वय. मपगता म्यवस्था घटत्वपटत्वादिवत् प्रतिनियमो यस्य तदपव्यवस्थमव्यवस्थमव्य. वस्थितम्। अपि त्वापेक्षिकम् / तस्मादिन्द्रोऽपि मया नेष्यतेको दोष इत्यर्थः // 106 // कीड़ेसे लेकर पुरुषोत्तम विष्णु भगवान् तक ( सबके लिये ) अपने-अपने अभीष्ट-लाभसे कृतकृत्यता होना सामान्य है / भिन्न-भिन्न वस्तु चाहनेवालों के वस्तु-वस्तुको विषयमें द्वेष भाव तथा प्रेमभाव अनियत है / ] अपने अभीष्टलाभसे छोटासे छोटा कीड़ा जिस प्रकार प्रसन्न होता है, उसी प्रकार अपने अभीष्ट लाभसे सर्वश्रेष्ठ विष्णु भगवान तक भी बड़ेसे बड़े प्राणी प्रसन्न होते हैं / मिन्न-भिन्न पदार्थोमें स्पृहा रखनेवालोंमें किसीको कोई पदार्थ अभीष्ट है तो दूसरेको वही पदार्थ अनभीष्ट है, अतः किसी बस्तुका अभीष्ट या अनभीष्ट होना निश्चित नहीं हैं / इसमें रुचि ही मुख्य कारण है, अतः मुझे नल ही रुचते हैं, इस कारणसे इस विषयमें तुम लोगोंको बोलना उचित नहीं // 106 // अमाध्वजाग्रामभृतापदन्धुं बन्धुयाद स्यात् प्रतिबन्धुमहः / जोषं जनः कार्यवितस्तु वस्तु प्रच्छथा निजेच्छा पदवीं मुदस्तु / 107 / / अप्राध्वेति / अग्रश्वासावध्वा चेति समानाधिकरणसमासः / अत एव 'अन. हस्ताग्रग्रहादयो गुणगुणिनोर्भेदाभावादिति वामनः। तस्मिन्नग्राध्वनि पुरोमार्गे, जाग्रत् स्फुरत् आसन्न इति यावत् / स चासौ निभृता नियता आपदेवान्धुः कूपः। 'पुंस्येवान्धुः प्रहिः कूप' इत्यमरः / तं प्रतिवन्धुम) निवारितुं शक्तों बन्धुः स्यायदि, स जनो बन्धुजनः कार्यवित् कार्यज्ञोऽपि / प्रश्नपर्यन्तं जोषमस्तु तूष्णीमास्ताम् / न तु मां निवारयेदित्यर्थः / कुतस्ताद ते कार्यविज्ञानं तदाह-मुदः श्रेयसः / पदवीं तु, निजेच्छेव प्रच्छया प्रष्टग्या। सैव मे प्रवर्तिका नान्यः कश्चिदस्तीत्यर्थः। वस्तु सत्यमयमेव परमार्थ इत्यर्थः / प्रच्छेर्द्विकर्मकत्वादप्रधाने कर्मणि 'ऋहलोर्ण्यत्' // 107 // सामने रास्तेमें स्थित नियत विपत्तिरूप कुआँ है जिसके ऐसे (बीच रास्तेमें स्थित समीपस्थ रूपमें गिरनेके समान विपत्तिमें शीघ्र ही अवश्य फँसने वाले ) बन्धुको मना करने