________________ षष्ठः सर्गः। 347 वाला है तो वह यदि बन्धु है तो कार्यशाता भी उस बन्धुको प्रश्न करने तक चुप रहना चाहिये, इसलिए मेरे विषयमें तुम लोगोंको नहीं बोलना चाहिए। श्रेयमार्गको अपनी इच्छाके प्रति पूछना ही ( वास्तविक ) वस्तु अर्थात् तत्त्व है / [ अथवा--रास्तेके आगेमें स्थित ढके हुए आपत्तिरूप कूप है जिसके ऐसा बन्धु यदि हो तो उसीको मना करना चाहिये ( मेरे विषयमें ऐसा नहीं है ) कार्यश बन्धुजनको तो चुप ही रहना चाहिए / अपनी इच्छा से ही हर्षके मार्गको वस्तुको हो तुम लोगोंको पूछना चाहिए। ] प्रथन अर्थमें-हितैषी बन्धुका कर्तव्य है कि यदि कोई बन्धु आपत्तिरूपमें गिरने वाला है तो उसे 'तुम इस मार्गसे मत जावो, अन्यथा सामने रास्तके मध्यवर्ती कूपमें गिर पड़ोगे अर्थात् इस अनिष्टकारक कार्यको मत करो, अन्यथा विपत्तिमें फंस जावोगे' इस प्रकार मना करना चाहिए / किन्तु मेरे विषयमें ऐसा नहीं होनेसे तुम लोगोंमेंसे अपनेको कार्यशका अभिमान करनेवाली किसी सखीको मुझे मना नहीं करना चाहिए, क्योंकि 'क्या मेरे लिए हितकारक है तथा क्या अनिष्टकारक है ? इस विषय में अपनी इच्छा ही हर्षकारक मार्गकी वस्तु हुआ करती है। द्वितीय अर्थ में-रास्तेमें तृण आदिसे आच्छादित होनेसे नहीं मालूम पड़नेवाले कूपमें किसी बन्धुको गिरनेकी आशङ्का हो तो हितैषी बन्धुको उसे मनाकर देना चाहिए कि 'इस मार्गमें तृणादिसे आच्छादित कूप है, उस रास्तेसे मत जाओ अन्यथा उसमें गिर पड़ोगे अर्थात् बिना समझे कोई बन्धु अज्ञानवश अनिष्टकर कार्य कर रहा हो तो उसे मनाकर देना चाहिए, किन्तु मेरे विषय में ऐसा नहीं है; मैंने नलको सर्वथा सोच-समझकर ही मनसे वरण किया है, उसमें कोई अनिष्ट नहीं होनेवाला हैं, अत एव तुम लोगोंको चुप रहना ही कार्यशता है / तुम लोगोंकी भी जिस पुरुषमें अनुरागरूप इच्छा होती है, वही ठोंक रास्ता होता है, अतः मेरे विषयमें भी वैसा ही समझना चाहिए / मेरे कार्य ( नलानुराग) को जाननेवाला व्यक्ति ( तुमलोग ) तो चुप रहो, तथा नहीं जानने वाला व्यक्ति (इन्द्रदूती) भले ही कुछ कहे, परन्तु उसका कोई महत्व नहीं] // 107 // इत्थ प्रतापाक्तिमति सखीनां बिलुप्य पाण्डित्यषलेन बाला। अपि तस्वपतिमन्त्रिसूक्ति दती बभाषेऽदतलोलमौलिम || 108 / / ___ इत्थमिति / बाला भैमी, इत्थं सखीनां प्रतीपोक्तिमति प्रतिकूलोक्तिबुद्धिमित्थं पाण्डित्वबलेन प्रागल्भ्यावलम्बेन विलुप्य निषिध्य श्रृताः स्वपतिमन्त्रिणः शक्रसचिवस्य बृहस्पतेः सूक्तयो वाचो यया तामपि "अहरादीनां पत्यादिषु" इति रेफादेशः। अद्भुतेन, अहो बृहस्पतेरपि प्रगल्भेत्याश्चर्येण लोलमोलिं कम्पशिरसं शिरः कम्पयन्तीमित्यर्थः / दूतीं बभाषे // 108 // बाला दमयन्तीने इस प्रकार (इलो० 102-107 ) सखियोंके प्रतिकूल कहनेके विचार को पाण्डित्यके बलसे निषेधकर स्वर्गाधीश इन्द्रके मन्त्री अर्थात् बृहस्पतिके सूक्तियोंको सुनी हुई तथा आश्चर्य से मर कको हिलाती हुई दूतीसे फिर बोली-[जिस प्रकार किसीके अधिक