________________ षष्ठः सर्गः। 345 क्रमेलकं निन्दति कोमलच्छुः क्रमेलकः कण्टकलम्पटस्तम् / प्रीती तयोरिष्ट्रभजोः समायां मध्यस्थता नैकतरोपहासः // 104 // ननु सरेन्द्र विहाय नलस्वीकारे जगत्युपहास्यता स्यात्तत्राह-क्रमेलकमिति / कोमलमिच्छुः कोमलेच्छुः मृद्वाहारी गजाश्वादिः / “न लोक" इत्यादिना षष्ठीप्रतिषेधान्मधुपिपासुवद् द्वितीयासमासः / क्रमेलकमुष्ट्रन्निन्दति / 'उष्ट्र क्रमेलकमयमहाङ्गा' इत्यमरः / कण्टकेषु लम्पटो लोलुपः क्रमेलकः / 'लोलुपं लोलुभं लोलं लम्पटं लालसं विदुः' इति हलायुधः / तं कोमलेच्छु निन्दति / इष्टभुजोस्तयोईयोः प्रीती तुष्टो समायां तत्र एकतरस्योपहासो मध्यस्थता / माध्यस्थ्यं न / यस्य यदिष्टं तुष्टि. करं च तस्य तत्र प्रवृत्तौ सर्वस्याप्यात्मदृष्टान्तेन सन्तोष्टव्येऽप्युपहसन्तः स्वयमेवो. पहास्या भवन्तीति भावः // 104 // कोमल पदार्थको चाहनेवाला ( गौ, घोड़ा आदि या पुरुष आदि ) ऊंटकी निन्दा करता है, तथा कण्टकोंमें लालसा रखनेवाला ऊंट उस मधुर चाहनेवाले (गौ, घोड़ा, आदि या पुरुष ) की निन्दा करता है / अपने-अपने अभिलषित पदार्थको खानेवाले दोनोंके समान प्रेम होनेपर उन दोनों ऊँट या मधुर-भक्षक गौ-घोड़ा-आदि-में एकका उपहास करना मध्यस्थता अर्थात् पक्षपात-शून्यता नहीं है अर्थात् उन दोनों में से किसी एकको मला समझना तथा दूसरेका उपहास करना एकके विरुद्ध पक्षपात करना है। अथवा-स्वाभिलपित पदार्थ ( मधुर या कण्टक ) खानेवाले दोनों के प्रेमके समान होनेपर एकका उपहास नहीं करना चाहिये, किन्तु मध्यस्थ ( उदासीन-तटस्थ ) हो जाना चाहिये / [ मैं अपने अभीष्ट नलको अच्छा समझ रही हूँ, तथा यह दूती इन्द्रको हम दोनों का क्रमशः नल तथा इन्द्रमें, समान प्रेम है, इस कारण तुम लोगोंको मेरा या दूतीका उपहास छोड़कर तटस्थ रहना चाहिये] // 104 // गुणा हरन्तोऽपि हरेनरं मे न रोचमानं परिहारयन्ति / न लोकमालोकयथापवर्गास्त्रिवर्गमर्वाधाममुखमानम् // 105 / / ननु नलादपि गुणाधिके हरौ कथमरुचिरत आह-गुणा इति / सत्यं हरन्तोऽपि मनो हरन्तोऽपि हरेरिन्द्रस्य गुणाः मे मां, "रुच्यर्थानां प्रीयमाणः" इति चतुर्थी। रोचमानं मनोहरं तं नरं न परिहारयन्ति न त्याजयन्ति / कुतः, अपवर्गान्मोक्षा. दवाञ्चमपकृष्टं, त्रिवर्ग धर्मार्थकामानमुञ्चमानमत्यजन्तं, लोक नालोकयथ ? न पश्यथेति काकुः / न गुणमपेक्षते रागवृत्तिरिति भावः / दृष्टान्तालङ्कारः // 105 // इन्द्रके मनोहर भी गुण मेरे लिये ( मुझे) रुचते हुए नर ( मनुष्य, 'रलयोरभेदः' सिद्धान्तके अनुसार 'नल' ) को नहीं छुड़ाते हैं अर्थात् मैं नलको ही चाहती हूँ, इन्द्रको नहीं। ( हे सखियो ! तुमलोग ) मोक्षसे हीन त्रिवर्ग ( अर्थ, धर्म और काम ) को नहीं छोड़नेवाले संसारको नहीं देखती हो / [ संसार जिस प्रकार मोक्षको छोड़कर उससे हीन