________________ षष्ठः सर्गः। 543 अत एव अपथ्यकल्पं अपथ्यानसदृशं, तं नाकं, स्वगं धीरो धीमान् , कः बुभुक्ते भोक्तुमिच्छति / अपथ्यान्नभोजनवदासन्नमरणाधिकारः नाकभोगः कस्मै नाम रोचत इत्यर्थः॥ 10 // __ जो स्वर्ग कर्मोपार्जित आयुके क्षीण होते ही मनुष्योंको प्राप्त होता है, आयुके रहते नहीं प्राप्त होता ( अथवा-पुण्यानुरूप स्वर्गमें स्थित कालरूप आयुके क्षीण.........। अथवा पाठा०-पुण्यकर्मके क्षयसे आयुके क्षीण......... / अथवा-......आयुके क्षीण होनेपर नहीं ठहरता है अर्थात् वह स्वर्ग पुण्यक्षय होने पर मनुष्यको अधोलोकमें भेज देता है), अपथ्यके समान तथा विचार नहीं करनेपर सुखकारक प्रतीत होनेवाले उस नाक ( स्वर्ग) को कौन विवेकशील पुरुष भोग करना चाहेगा ? अर्थात् कोई नहीं / ( पाठा०अविचारित रमणीय सुखके लिए उद्युक्त कौन धीर पुरुष अपथ्यके समान सुखको भोगना चाहेगा ? अर्थात् कोई नहीं)। [इस कारण वास्तविक सुख प्राप्तिके लिये मैं नलको वरणकर भारत भूमिमें ही रहना चाहती हूँ, इन्द्रको वरणकर अन्तमें अहितकर अपथ्य सेवन-तुल्य स्वर्ग-सुखको नहीं चाहती] // 10 // इतीन्द्रदूत्यां प्रतिवाचमधे प्रत्युह्य सैषाभिदधे वयस्याः / किञ्चिाद्ववक्षोल्लसदोएलक्ष्मीजिलापनिद्रहलपङ्कजास्याः / / 101 / / इतीति / सैषा भैमी, इतीत्यमिन्द्रदूत्यां विषये, प्रतिवाचं प्रत्युत्तरम् / अर्धे प्रत्युह्य मध्ये मध्ये निरुध्य, असमाप्यवेत्यर्थः / “उपसर्गाज्रस्व ऊहतेः" इति हस्वः / किञ्चिद्विवज्ञया यत्किञ्चिद्दक्तुमिच्छवा, उल्लसतः स्फुरतः, ओष्ठस्य लदम्या शोभया जितमनिद्रलं विकसत्पत्रं यस्य तत् / अपनिपूर्वाद् द्रातेः शतृप्रत्ययः। तच तत्पङ्कजञ्च तदिव आस्यं यासां ता वयस्याः सखीः अभिदधे उवाच / दधातेः कर्तरि लिटि तङः // 101 // - इस दमयन्तीने इन्द्रकी दूतीको उत्तर देना आधेमें ही रोककर ( इन्द्रवरणके पक्षमें ) कुछ कहने की इच्छाले हिलते हुए ओठोंकी शोभासे जीते गये विकसित पत्रवालं कमलके समान सुखवाली सखियोंसे कहा / [दमयन्ती जब इन्द्रकी दूतीसे कह रही थी, उसी समय सखियों के ओष्ठकम्पनसे इन्द्रको वरण करने के पक्ष में ये सखियां कुछ कहना चाहती हैं, अतः पहले इन आत्मीय लोगोंको ही सम्हालना ठीक है, ऐसा समझकर वह दमयन्ती दूतीसे कहने के बीच में ही रोककर सखियोंसे बोली-] // 101 // अनादिधाविस्वपरम्पराया हेतुन जस्स्रोतसि वेश्वरे वा / आयत्तधीरेष जनस्तदार्याः ! किमीहशः पर्यनुयज्य कार्यः / / 102 / / ' अनादीति / हे आाः, एष जनः अनादि यथा तथा, धाविन्याः प्रवहन्त्याः, स्वपरम्परायाः स्वदेहपरम्परायाः इत्यर्थः / तत्सम्बन्धिन्याः हेतुस्त्रजः हेतुभूनकर्म 1. 'अनादिधारिस्वपर- 'अनादिधाविश्वपर-' इति पाठान्तरे। 22 नै०