________________ नैपषमहाकाव्यम। कहनेपर इन्द्र-दूतीको तथा सखियोंको हकी परिमिति ( परिमिति हर्ष) ने नहीं मालिङ्गन किया अर्थात् अपरिमित हर्षने मालिङ्गन किया ( दमयन्तीके ऐसा कहनेपर अपने कपनको सफल होते देख इन्द्रदूती तथा सखियों को अपरिमित हर्ष हुआ। दूतीने सोचा कि हमारा कथनको किसी नियमको करके ( वरदान मादि मांगकर ) दमयन्ती पूरा करना चाहती है इसी कारण 'कहने के लिये कुछ विशेष बाकी है। ऐसा कह रही है तो इसके शेष कथनको पूरा करनेसे हमारा कार्य सिद्ध हो जायगा अर्थात् यह इन्द्रको वरण कर लेगी यह सोच उसे अपरिमित आनन्द हुआ / अथवा-अपरिमित हर्षने नहीं आलिङ्गन किया, क्योंकि दमयन्तीने 'कुछ विशेष कहना बाकी है। ऐसा कह दिया था, अतः...अथवा-तुमलोगोंका कहना मैने कभी नहीं किया है क्या ? मुझे विशेष कहने के लिये और कुछ वाकी है क्या ? (इस प्रकार 'किम् ' शब्दका दोनों वाक्यों के साथ सम्बन्ध करे ) ऐसा दमयन्तीके कहनेपर......] // 88 // मेंमी व दूत्यं च न किजिदापमिति स्वयं भावयतो नलस्य / आलोकमानादि तन्मखेन्दोरभूम भिन्नं हृदयारविन्दम || 89 / / भैमीति // भमीञ्च दूत्यञ्च किचिकिचन तयोरेकञ्च / नापं न प्रापम् / आप्नोते. रडि मिप / स्त्रीरत्नलामी मा भूत् , परोपकारोऽपि न सिद्ध इत्यर्थः / इति स्वयमास्मनि भावयतो भैमीचित्तचलनभ्रान्त्या चिन्तयतो नलस्य, हृदयमेवारबिन्दं, तन्मु. खेन्दोः भैमीमुखचन्द्रस्यालोकमात्रात् दर्शनमात्रात् प्रकाशमात्राच / 'आलोको दर्श. नोद्योती' इत्यमरः / भिन्नं विदीर्ण विकसितश्च नाभूयदि नाभूत् किम् / तन्मुखदर्शनादनया विश्वास्य हतोऽस्मीति विदीर्णहृदयोऽभूदेवेत्यर्थः / इन्दुप्रकाशात् कथमनविन्द विकास इति विरोधश्च ध्वन्यते // 89 // "मैंने दमयन्ती या दूत कार्य-इन दोनोंमेंसे किसीको नहीं पाया" ऐसा स्वयं सोचते हुए नलका हृदय-कमल दमयन्तीके मुखच-द्रको देखने मात्रसे विदीर्ण नहीं हुआ क्या ? अर्थात् अवश्य विदीर्ण हुआ। ] अथवा-...हुए नलका हृदय कमल जो बिदीर्ण नहीं हुआ वह दमयन्तीके मुखचन्द्र के देखनेसे ही नहीं हुआ। नलने विचारोंकि प्रियारूपमें दमयन्तीको पानेसे तो मैं वञ्चित रहा ही किन्तु परोपकार तथा स्वयशोवृद्धिरूप श्रेयसे भी मैं वञ्चित रह गया, क्योंकि मेरे कार्यको यह दूती ही पूरा कर रही है, यह सोच ( अपनी समझके अनुसार, बास्तविकमें नहीं ) इंद्रानुरक्त दमयन्तीके मुख-चन्द्रको देखने रहनेपर भी नलका हृदय विदीर्ण हो गया, चन्द्रदर्शन होते रहनेपर भी कमलको विकसित होना कवि-समय विरुद्ध है / अतईव नारायणभट्ट-समस्त द्वितीय व्यख्यान ही ठीक प्रतीत होता है, उसके अनुसार उक्त बात सोचते हुए नलका हृदय-कमल उस दमयन्तीके मुखचन्द्रको देखने मात्रसे ही विदीर्ण ( खण्डित, पक्षा०-विकसित ) नहीं हुआ, अपितु सङ्कुचित रहा। चन्द्रमाको देखनेसे कमल विकसित नहीं होता, किन्तु सङ्कुचित ही रहता है ] / 89 //