________________ नैषधमहाकाव्यम। (राजा होनेसे इन्द्रके अंशरूप ) के लिये मनसे दिया है। [देवरूप इन्द्रका सन्देश नहीं अननेसे एक प्रकार उनका अपमान होगा, मनुष्यको देवताका अपमान करना उचित नहीं, इसी विचारसे मैंने इंद्रका सन्देश सुना है, कुछ उनमें अनुराग होनेसे नक्त सन्देशको नहीं सुना है। यदि सानुराग होकर इन्द्रकी बात सुनती तो मनसे मनुष्य रूपमें स्थित इन्द्र अर्थात् नलके लिये अपनेको पहले समर्पण कर देनेके कारण परपुरुष-विषयक सन्देश मुननेसे मेरा पातिव्रत्यरूपधर्म नष्ट हो जाता ] // 95 // तस्मिन्विमृश्यैव घृते हुदैषा नैन्द्री दया मामनुतापिकाभूत् / नितिकामं भवसम्भवानां धीरं सुखानामवधीरणेव // 16 // तस्मिमिति / तस्मिन् नरे हृदा हृदयेन, विभृश्यैव वृते सति इदमेव साध्विति सम्यनिश्चिस्यैव प्रवृत्तेरित्यर्थः / एषा ऐन्द्री, दया परिजिघृक्षालक्षणा कृपा। निर्वातुकाम मोक्तुकामम, इदमेव साध्विति निश्चित्य मोक्षे प्रवृत्तमित्यर्थः / 'मुक्तिः कैवल्यनिर्वाण' इत्यमरः। धीरं निर्विकारचित्तं, विद्वांसम / भवसम्भवानां सुखानाम, अवधारणा सांसारिकसुखसंन्यास इव ममानुतापिका हा कष्टमसाधुकृतामति मम पश्चात्तापकारिणी नाभूत् / 'अकेनोर्भविष्यदाधमर्ययोः' इति षष्ठीप्रतिषेधात् कर्मणि द्वितीया // 96 // " विचारकर ही हृदयसे उसे ( नलको ) वर गकर लेनेपर इन्द्रकी यह दया ( मुझसे विवाह करनेकी अभिलाषा ), मुक्ति चाहनेवाले धैर्यवान् या विवेकीको सांसारिक सुखोंको तिरस्कारके समान मुझको सन्तप्त करनेवाली न होवे / [जिस प्रकार मुक्ति चाहनेवाले विवेकी व्यक्तिको सांसारिक सुखोंका त्याग सताता नहीं अर्थात-"इन सांसारिक सुखों को त्यागकर व्यर्थ में मैं मुक्ति-लाभके झमेले में पड़ा" इस प्रकार विवेकी पुरुष पश्चात्ताप नहीं करता, उसी प्रकार मैंने नलको बहुत सोच-विचारकर पहले ही हृदयसे वरण कर लिया है, अतः 'इन्द्र मुझ पत्नीरूपमें स्वीकार करनेकी दया करने की कृपाकर रहे हैं इस बाससे मुझे पश्चात्ताप नहीं होता। मोक्षार्थी विवेकशील व्यक्तिके लिये जिस प्रकार सांसारिक सुख तुच्छ एवं व्यर्थ है, उसी प्रकार इन्द्रकी उक्त प्रार्थना भी मेरे लिये तुच्छ और व्यर्थ है // 16 // वर्षेषु यद्वारतमायधुर्योः स्तुवन्ति गाहस्ध्यमिवाप्रमेषु।। तत्रास्मि पत्युवरिवस्ययाहं शर्मोमिकिर्मीरितधर्मलिप्सुः // 17 // विमृश्य कृतमित्युक्तमयैनं विमर्शप्रकारमेव श्लोकचतुष्टयेनाह-वर्षेष्वित्यादि। आर्यधुर्याः श्रेष्ठाः आश्रमेषु ब्रह्मचर्यादिषु चतुर्पु गार्हस्थ्यं गृहस्थाश्रममिव / वर्षेष्वि. लावृतादिषु नवसु यदारतं वर्ष स्तुवन्ति प्रशंसन्ति / तत्र भारतर्षे अहं पत्युपरिव. स्यया शुश्रषया। 'वरिवस्या तु शुश्रषा' इत्यमरः / वरिवस्यतेः क्यजन्तात् 'भ प्रत्ययात्' इति आकारप्रत्यये टाप / शामिभिः सुखपरम्पराभिः, किर्मीरितं चित्रित तस्सहचरधर्म लिप्सुलब्धुमिल्छुरस्मि / शर्मशातसुखानि च / चित्रं किमरिकल्माष. शबलेताच कुर्वर' इति चामरः / / 57 / /