________________ षष्ठः सर्गः। रतिपति कामदेव नलके शरीर को स्पर्श करनेवाले उन खियोंके अङ्गोंको तथा नलके प्रतिबिम्बको देखनेवाले उनके नेत्रोंको (भले ही हर्ष होनेसे ) उल्लासित करे ( यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं हैं किन्तु ) काटनेपर भी चेतनाशून्य रोमको जो उसने हर्षित कर दिया ( स्त्रियोंके शरीरको रोमाञ्च युक्त कर दिया ), वह पत्थर को ही नचा दिया। [ चेतनायुक्त शरीर या नेत्रको उल्लासित करना सामान्य बात है, किन्तु कामदेवने-जो बाल काटनेपर भी चेतनाहीन रहते हैं उनको हर्षित कर जड़ पत्थरको नचानेके समान आश्चर्यकारक काम किया / सब खियां नलके शरीर का स्पर्शकर तथा उनके प्रतिविम्बको देखकर रोमाञ्चित हो गयीं] // 34 // यस्मिन्नलस्पृष्ठकमेत्य हृष्टा भूयोऽपि तं देशमगान्मृगाक्षी / निपत्य तत्रास्य धरारजःस्थे पादे प्रसीदेति शनैरवादीत // 35 // यस्मिन्निति // मृगाक्षी यस्मिन् देशे नलस्य स्पृष्टक आलिङ्गनविशेषम् / “यद्योषितस्सम्मुखमागताया अन्यापदेशाद् व्रजतो नरस्य / गात्रेण गात्रं घटते तदेतदालिङ्गनं स्पृष्टकमाहुरायाः // " इति रतिरहस्येऽभिधानात् / एत्य प्राप्य, हृष्टा तं देशं भूयोऽप्यगात् / पुनः स्पशलोभादिति भावः / कितु तत्र देशे धरारजःस्थे भूपराग. निष्ठे अस्य नलस्य पादे पादप्रतिकृतौ निपत्य, प्रसीद मां पुनः स्पर्शनानुगृहाणेति शनैरवादीत् / न तु स्पर्श लेभे / तस्यापगमादिति भावः // 35 // ___मृगनयनी जिस स्थानपर नलके ( सन्मुख अन्य कार्यसे जाती हुइ उनके ) शरीरके स्पर्शसे 'स्पृष्टक' नामक आलिङ्गन को प्राप्तकर हर्षित हुई थी, उस स्थानपर ( उनके आलिङ्गन सुखको पाने के लिये ) पुनःगयी (किन्तु वहांसे नलके हट जाने के कारण उनके आलिजनके सुखको नहीं प्राप्त करनेसे ) वहांपर भूमिकी धूलिमें स्थिति ( चिह्नित) इस नलके पैरमें गिरकर ( प्रणामकर ) प्रसन्न होइये, ऐसा धीरेसे कहा / [ परकीया नायिका परपुरुषके स्पर्शसे सुखानुभव कर पुनः संभोगादिके लिये वहां जानेपर उसे प्रसन्न करनेके लिये पैरोंपर गिरकर दूसरा कोई न सुन ले इस कारण धीरेसे प्रार्थना करती है / वह स्त्री नलमें अत्यन्त आसक्त हो गयी ] // 35 // भ्रमन्नमुष्यामुपकारिकायामायास्य भैमीविरहाटकशीयान् / असो मुहः सोधपरम्पराणां व्यधत्त विश्रान्तिमुपत्यकासु // 36 // भ्रमन्निति / भैमीविरहात् क्रशीयान् अतिकृशोऽसौ नलः / अमुण्यामुपकारिकायां राजसमनीत्यर्थः / भ्रमन् सञ्चरन् , आयास्य परिश्रम्य, मुहुः सोधपरम्पराणाम्, उपत्यकास्वासन्नभूमिषु / अत्र सौधानां पर्वतसाधात् गौणोऽयं प्रयोगः। "उपाधिभ्यां त्यकन्नासन्नारूढयोः" इति त्यकन्प्रत्ययस्य पर्वतासन्नभूमिसंज्ञात्वेन विधानात् / “उपत्यकानेरासन्ना भूमि" रित्यभिधानात्तथैव प्रयोगाच्च / संज्ञात्वादेव कात्पूर्वस्येकाराभावः / विश्रान्ति व्यधत्त विश्रान्तोऽभूदित्यर्थः // 36 // 20 नै०